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लित हो गया।" इन दोनो युक्तियों में कौन सी ग्राह्य है, यह बताना कठिन है, क्योंकि दोनों ही अनुमान हैं और इनका सिद्ध करने के लिए प्राचीन हिंदी के कोई उदाहरण नही मिलते। "विभक्ति-विचार" में 'कहँ', 'कहुँ' आदि की व्युत्पत्ति के विषय में कुछ नहीं कहा गया।

(३) करण-कारक—इसकी विभक्ति "से" है। यही प्रत्यय अपादान-कारक का भी है। कर्म और संप्रदान-कारकों की विभक्ति के समान हिदी मे करण और अपादान-कारकों की विभक्ति भी एक ही है। मिश्रजी के मत में यह "से" विभक्ति प्राकृत की पंचमी विभक्ति "सुन्तो" से निकली है और इसीसे हिंदी के अपादान-कारक के प्राचीन रूप "तें", "सो", आदि व्युत्पन्न हुए हैं। चद के महाकाव्य में अपादान के अर्थ में "हुंतो" और "हूँत" आये हैं जो प्राकृत की पंचमी के दूसरे प्रत्यय "हिंतो" से निकले हैं। हार्नली साहब का मत भी प्रायः ऐसा ही है, पर कैलाग साहब जो सब विभक्तियों के स्वतत्र शब्दों के टूटे-फूटे रूप सिद्ध करने की प्रयत्न करते हैं, इस विभक्ति के संस्कृत के "सम" शब्द का रूपांतर मानते हैं। "से" की व्युत्पत्ति के विषय में मिश्रजी (और हार्नली साहब) का मत ठीक जान पड़ता है, परंतु इन विद्वानों में से किसीने यह नहीं बतलाया कि हिदी मे "से" विभक्ति करण और अपादान देने कारकों में क्योंकर प्रचलित हुई, जब कि संस्कृत और प्राकृत में दोनों कारकों के लिए अलग अलग विभक्तियाँ हैं। "भाषा-प्रभाकर" मे जहाॅ और और विभक्तियों की व्युत्पत्ति बताने की चेष्टा की गई है, वहाॅ "से" का नाम तक नहीं है।

(४) संबंध-कारक—इस कारक की विभक्ति "का" है। वाक्य में जिस शब्द के साथ संबंध-कारक का संबंध होता है। उसे भेद्य कहते हैं और भेद्य के संबंध से संबंध-कारक को भेदक

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