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कहते हैँ। "राजा का घोड़ाः—इस वाक्यांश मे "राजा का" भेदक और "घोड़ा" भेद्य है। संबंध-कारक की विभक्ति "का" भेद्य के लिंग, वचन और कारक के अनुसार बदलकर "की" और "के" हो जाती है। हिंदी की और और विभक्तियों के समान "का" विभक्ति की व्युत्पत्ति के विषय में भी वैयाकरणों का मत एक नहीं है। उनके मतों का सार नीचे दिया जाता है—

(अ) संस्कृत में इक, ईन, इय प्रत्यय संज्ञाओं में लगने से "तत्संबंधी" विशेषण बनते हैं; जैसे, काया—कायिक, कुल कुलीन, राष्ट्र—राष्ट्रीय। "इक" से हिंदी में "का", "ईन" से गुजराती में "नो" और "इय" से सिंधी मे "जो" और मराठी मे "चा" आया है।
(आ) प्रायः इसी अर्थ में संस्कृत में एक प्रत्यय "क" आता है; जैसे, मद्रक=मद्र देश में उत्पन्न; रोमक=रोम देश संबंधी आदि। प्राचीन हिदी मे भी वर्तमान "का" के स्थान में "क" पाया जाता है; जैसे, "पितु-आयसु सब धर्म-क टीका।" (रम०)। इन उदाहरणो से जान पड़ता है कि हिंदी "का" संस्कृत के "क" प्रत्यय से निकला हैं।
(इ) प्राकृत मे "इदं" (संबंध) अर्थ में "केरओ", "केरिआ," "केरकं", "केर", आदि प्रत्यय आते हैं जो विशेषण के समान प्रयुक्त होते हैं और लिग में विशेष्य के अनुसार बदलते हैं; जैसे, "कस्यकेरकं एदं पवहणं (सं०—कस्य सम्बन्धिनं इदं प्रवहणं)=किसका यह वाहन (है)। इन्हीं प्रत्यय से रासो की प्राचीन हिंदी के केरा, केरो, आदि प्रत्यय निकले हैं। जिनसे वर्तमान हिदी के "का-के-की" प्रत्यय बने हैं।


(ई) क्क, इक्क, एच्चय आदि प्राकृत के इदमर्थ के प्रत्ययोँ से ही रूपांत-