पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२६०)

तो "मे" के साथ ही "माँझ", "मँझार", "मधि", आदि का प्रयोग हिंदी में न होता। गुजराती का, सप्तमी का, प्रत्यय "मॉ" इसी (पिछले) मत का पुष्ट करता है, अर्थात् "में" प्राकृत "म्मिं" का अपभ्रंश है।

(६) संबोधन-कारक—कोई-कोई वैयाकरण इसे अलग कारक नहीं गिनते, किंतु कर्त्ता-कारक के अंतर्गत मानते हैं। संबंध-कारक के समान यह कारकों में इसलिए नहीं गिना जाता कि इन दोनों कारकों को संबंध बहुधा क्रिया से नहीं होता। संबंध-कारक का अन्वय तो क्रिया के साथ परोक्ष रूप से होता भी है; परंतु संबोधन-कारक का अन्वय वाक्य में किसी शब्द के साथ नही होता। इसको केवल इसीलिए कारक मानते हैं कि इस अर्थ में संज्ञा का स्वतंत्र रूप पाया जाता है। संबोधन-कारक की कई अलग विभक्ति नही है; परंतु और और कारकों के समान इसके दोनों वचनों में संज्ञा का रूपांतर होता है। विभक्ति के बदले इस कारक में संज्ञा के पहले बहुधा हे, हो, अरे, अजी, आदि विस्मयादि-बोधक अव्यय लगाये जाते हैं। इन शब्दों के प्रयोग विस्मयादि-बोधक-अव्यय के अध्याय में दिये गये है।

३०७—विभक्तियाँ चरम प्रत्यय कहलाती हैं, अर्थात् उनके पश्चात् दूसरे प्रत्यय नहीं आते। इस लक्षण के अनुसार विभक्तियों और दूसरे प्रत्ययों का अंतर स्पष्ट हो जाता है; जैसे, "संसार-भर के ग्रंथ-गिरि पर।" (भारत॰)। इस वाक्यांश मे "भर" शब्द विभक्ति नहीं है; क्योंकि उसके पश्चात् "के" विभक्ति आई है। इस "के" के पश्चात् भर, तक, वाला, आदि कोई प्रत्यय नहीं आ सकते। तथापि हिंदी में अधिकरण-कारक की विभक्तियों के साथ बहुधा संबंध वा अपादान-कारक की विभक्ति आती है; जैसे, "हमारे पाठकों में से बहुतेरों ने।" (भारत॰)। "नंद उसको आसन पर