पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/२९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२७२)

हैं उसीको मिश्रजी अलग लिखते हैं। ऐसे शब्द अवतरणों में मोटे छापे गये हैं। मिश्रजी ने तो यहाँ तक किया है कि संज्ञा में विभक्ति के मिलाने के लिये दोनों के बीच में "ही" लिखना ही छोड़ दिया है, यद्यपि यह अव्यय संज्ञा और विभक्ति के बीच में भी आता है। इसी तरह से गुप्तजी "तक" को और शब्दों से ते अलग अलग, पर "यहाँ" में मिलाकर लिखते हैं। "पर" के संबंध में भी दोनों क्षेत्र को मत-विरोध है।

ऐसी अवस्था में विभक्तियों को संज्ञाओं से मिलाकर लिखने के लिये भाषा के आधार पर कोई निश्चित नियम बनाना कठिन है। विभक्तियों को मिलाकर लिखने में एक दूसरी कठिनाई यह है कि हिंदी में बहुधा प्रकृति और प्रत्यय के बीच में कोई कोई अव्यय भी आ जाते हैं, जैसे "चौदह पीढ़ी तक का पता।" (शिव॰)। "संसार भर के ग्रंथ-गिरि।" (भारत॰)। "घर ही के बाढ़े।" (राम॰)। प्रकृति और प्रत्यय के बीच में समानाधिकरण शब्द के आ जाने से भी उन दोनों को मिलाने में बाधा आ जाती है; जैसे, "विदर्भ नगर के राजा भीमसेन की कन्या भुषनमोहिनी दमयंती का रूप " (गुटका)। "हरगेविंद (पसारी के लड़के) ने" (परी॰)। उलटे कामाओं से घिरे हुए शब्दों के साथ विभक्ति मिलाने से जे गड़बड़ होती है उसके उदाहरण स्वयं "विभक्ति विचार" में मिलते हैं, जैसे, "समसे" "सके" उद्भव न होने की प्रत्यक्ष प्रमाण, "को का" संबंध, इत्यादि। मिश्रजी ने कहीं कहीं विभक्ति को इन कामाओं के पश्चात् भी लिखा है; जैसे, 'न्ह' का प्रयोग (पृ॰ ५६), "से" के बीच में (पृ॰ ८६)। इस प्रकार के गड़बड़ प्रयोगों से संयोग-वादियों के प्रायः सभी सिद्धांत खंडित हो जाते हैं।

हिंदी में अधिकांश लेखक विभक्तियों को सर्वनाम के साथ मिलाकर लिखते हैं, क्योंकि इनमें संज्ञाओं की अपेक्षा अधिक नियमित रूपांतर होते हैं, और प्रकृति तथा प्रत्यय के बीच में बहुधा कोई प्रत्यय नहीं आते। तथापि "भारत-भारती" में विभक्तियाँ सर्वनामों से भी पृथक् लिखी गई हैं। ऐसी अवस्था में भाषा के प्रयोग का आधार वैयाकरण के नहीं है, इसलिये इस विषय के हम ऐसा ही अनिश्चित छोड़ देते हैं।

३१५—विभक्तियों के बदले में कभी कभी नीचे लिखे संबंध सूचक अव्यय आते हैं—

कर्मकारक—प्रति, तईं (पुरानी भाषा मे)।