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३४८—क्रिया मेँ वाच्य, काल, अर्थ, पुरुष, लिंग और वचन के कारण विकार होता है। (क) जिस क्रिया में ये विकार पाये जाते हैं और जिसके द्वारा विधान किया जा सकता है, उसे समापिका क्रिया कहते हैं; जैसे, "लड़का खेलता है।" इस वाक्य में "खेलता है" समापिका क्रिया है।

[१] वाच्य।

३४९—वाच्य क्रिया के उस रूपांतर को कहते हैँ जिससे जाना जाता है कि वाक्य में कर्त्ता के विषय में विधान किया गया है वो कर्म के विषय मेँ, अथवा केवल भाव के विषय मे; जैसे, "स्त्री कपड़ा सीती है" (कर्त्ता), "कपड़ा सिया जाता है" (कर्म), "यहाँ बैठा नहीं जाता" (भाव)।

[टी॰—वाच्य का यह लक्षण हिंदी के अधिकांश व्याकरणों में दिये हुए लक्षणो से भिन्न है। उनमें वाच्य का लक्षण संस्कृत व्याकरण के अनुसार क्रिया के केवल रूप के आधार पर किया गया है। संस्कृत में वाच्य का निर्णय केवल रूप पर से हेा सकता है, पर हिंदी में क्रिया के कई एक प्रयेाग—जैसे, लड़के ने पाठ पढ़ा, रानी ने सहेलियों को बुलाया, लड़कों को गाड़ी पर बिठाया जाय—ऐसे है जो रूप के अनुसार एक वाच्य में और अर्थ के अनुसार दूसरे वाच्य में जाते है। इसलिए संस्कृत व्याकरण के अनुसार, केवल रूप के आधार पर हिंदीमें वाच्य को लक्षण करना कठिन है। यदि केवल रूप के आधार पर यह लक्षण किया जायगा तो अर्थ के अनुसार वाच्य के कई संकीर्ण (संलग्न) विभाग करने पड़ेंगे और यह विषय सहज होने के बदले कठिन हो जायगा।

कई एक वैयाकरणो का मत है कि हिंदी में वाच्य का लक्षण करने में क्रिया के केवल "रूपांतर" का उल्लेख करना अशुद्ध है, क्योकि इस भाषा में वाच्य के लिए क्रिया का रूपांतर ही नहीं होता, बरन उसके साथ दूसरी किया का समास भी होता है। इस आक्षेप का उत्तर यह है कि कोई भाषा कितनी ही रूपांतर-शील क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं जिनमें मूल शब्द में ते रूपांतर नहीं होता, किंतु दूसरे शब्दों की सहायता से रूपांतर माना जाता है। सस्कृत के "बोधियाम् आस", "पठन् भवति" आदि इसी प्रकार