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के प्रयोग है। हिंदी में केवल वाच्य ही नहीं, किंतु अधिकांश काल, अर्थ, कृदंत और कारक तथी तुलना आदि भी बहुधा दूसरे शब्दो के येग से सूचित होते है। इसलिए हिंदी-व्याकरण में कहीं कहीं संयुक्त शब्दों के भी, सुभीते के लिए, मूल रूपांतर मान लेते हैं।

कोई कोई वैयाकरण "वाच्य" के "प्रयोग" भी कहते हैं, क्योंकि संस्कृत व्याकरण में ये दोन शब्द पर्यायवाची हैं। हिंदी में वाच्य के संबंध से दो प्रकार की रचनाएँ होती हैं, इसलिए हमने "प्रयोग" शब्द का उपयोग क्रिया के साथ कर्त्ता या कर्म के अन्वय तथा अनन्वय ही के अर्थ में किया है और उसे "वाच्य" का अनावश्यक पर्यायवाची शब्द नहीं रक्खा। हिंदी-व्याकरणों के "कतृप्रधान," "कर्म-प्रधान" और "भावप्रधान" शब्द भ्रामक होने के कारण इस पुस्तक में छोड़ दिये गये है।]।

३४९—(क)—कर्तृवाच्य क्रिया के उस रूपांतर को कहते हैं। जिससे जाना जाता है कि वाक्य का उद्देश्य क्रिया का कर्त्ता है; जैसे, "लड़का दौड़ता है", "लड़का पुस्तक पढ़ता है, "लड़के ने पुस्तक पढ़ी, "रानी ने सहेलियों को बुलवाया," "हमने नहाया," इत्यादि।"

[टी॰—"लड़के ने पुस्तक पढ़ी"—इस वाक्य में क्रिया को कोई कोई वैयाकरण कर्मवाच्य (वा कर्मणिप्रयोग) मानते है। संस्कृत-व्याकरण में दिये हुए लक्षण के अनुसार "पढ़ी" क्रिया कर्मवाच्य (या कर्मणिप्रयोग) अवश्य है, क्योंकि उसके पुरुष, लिंग, वचन "पुस्तक" कर्म के अनुसार हैं, और हिंदी की रचना "लड़के ने पुस्तक पढी" संस्कृत की रचना "बालकेन पुस्तिका पठिता" के बिलकुल समान है। तथापि हिंदी की यह रचना कुछ विशेष कालो ही में होती है (जिनका वर्णन आगे "प्रयोग" के प्रकरण में किया जायगा) और इसमें कर्म की प्रधानता नहीं है, किंतु कर्त्ता की है। इसलिए यह रचना रूप के अनुसार कर्मवाच्य होने पर भी अर्थ के अनुसार कर्त्तावाच्य है। इसी प्रकार "रानी ने सहेलियों को बुलाया"—इस वाक्य में "बुलाया" क्रिया रूप के अनुसार तो भाववाच्य है, परंतु अर्थ के अनुसार कर्तृवाच्य ही है और इसमें भी हमारा किया हुआ वाच्य का लक्षण घटित होता है।]


  • अ॰—६७८-अ देखो।