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[स॰—संयुक्त क्रियाओं के भाववाच्य का विचार आगे (४२६ वें अक में) किया जायगा ।]

३५६—द्विकर्मक क्रियाओं के कर्मवाच्य में मुख्य कर्म उद्देश्य होता है और गैाण कर्म ज्यो का यो रहता है, जैसे, राजा के भेंट दी गई। विद्यार्थी को गणित सिखाया जायगा।

(अ) अपूर्ण सकर्मक क्रियाओं के कर्मवाच्य मे मुख्य कर्म उद्देश होता है, परतु वह कभी कभी कर्मकारक ही में आता है, जैसे, "सिपाही सरदार बनाया गया।" "कास्टेबलों को कालिज के अहाते में न खड़ा किया जाता।" (शिव॰)।

[२] काल।

३५७—क्रिया के उसे रूपांतर को काल कहते हैं जिससे क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण वा अपूर्ण अवस्था का बोध होता है, जैसे, मैं जाता हूँ (वर्तमानकाल)। मैं जाता था (अपूर्ण भूतकाल)। मैं जाऊँगा (भविष्यत् काल)।

[सू॰—(१) काल (समय) अनादि और अनंत है। उसका कोई खंड नहीं हो सकती। तथापि वको वा लेखक की दृष्टि से समय के तीन भाग कल्पित किये जा सकते हैं। जिस समय वक्ता वा लेखक बोलता वा लिखता हो उस समय के वर्तमान काल कहते हैं और उसके पहले का समय भूतकाल तथा पीछे का समय भविष्यत् काल कहलाता है। इन तीनों कालों को बोध क्रिय के रूपों से होता है, इसलिए क्रिया के रूप भी "काल" कहलाते हैं। क्रिया के "काल" से केवल व्यापार के समय ही का बोध नहीं होता, किंतु उसकी पुर्णता वा अपूर्णता भी सूचित होती है। इसलिए क्रिया के रूपातंरो के अनुसार प्रत्येक "काल" के भी भेद माने जाते है।

(२) यह बात स्मरणीय है कि काल क्रिया के रूप का नाम है, इसलिए दुसरे शब्द जिनसे काल का बोध होता है "काल" नहीं कहाते, जैसे, आज, कल, परसों, अभी, घड़ी, पल, इत्यादि।]

३५८—हिदी मेँ क्रिया के कालों के मुख्य तीन भेद होते हैं— (१) वर्तमान काल (२) भूत काल (३) भविष्यत् काल । क्रिया की