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की संख्या सात के बदले ठीक नौ होती। कोई कोई वैयाकरण समझते हैं कि "वह लिखता रहे।" अपूर्ण भविष्यत् को और "वह लिख चुकेगा" पूर्ण भविष्यत् का उदाहरण है; और इन दोनों काले के स्वीकार करने से हिंदी की काल-व्यवस्था पूरी हो जायगी। ऐसा करना बहुत ही उचित होता; परंतु ऊपर जो उदारहण दिये गये हैं वे यधार्थ में संयुक्त क्रियाओं के हैं और इस प्रकार के रूप दूसरे काल में भी पाये जाते हैं; जैसे, वह लिखता रहा। वह लिख चुका, इत्यादि। तब इन रूपों के भी अपूर्ण भविष्यतू और पूर्ण भविष्यत् के समान क्रमश अपूर्ण भूत और पूर्णा भूत मानना पड़ेगा जिससे काल-व्यवस्था पूर्ण होने के बदले गड़बड़े और कठिन हो जायगी। वही बात अपूर्ण वर्तमान के रूपों के विषय में भी कही जा सकती है।

हमने इस काल के उदाहरण केवल काल-व्यवस्था की पूर्णता के लिए दिये हैं। इस प्रकार के रूपों का विचार सयुक्त क्रियाओं के अध्याय में किया जायगा। अ॰—४०७, ४१२, ४१५)।

कालों के संबंध में यह बात भी विचारणीय है कि कोई कोई वैयाकरण इन्हें सार्थक नाम (सामान्य चर्तमान, पूर्णभूत, आदि) देना ठीक नहीं समझते, क्योंकि किसी एक नाम से एक काल के सब अर्थ सूचित नहीं होते। भट्टजी ने इनके नाम संस्कृत के लट् लोट् लेड् लिड् आदि के अनुकरण पर "पहला रूप" "तीसरा रूप" आदि (कल्पित नाम) रक्खे हैं। कारको के नाम के समान कालों के नाम भी व्याकरण में विवाद-ग्रस्त विषय है; परंतु जिन कारणों से हिंदी में कार के सार्थक नाम रखना प्रयेाजनीय है उन्हीं कारणों से कालों के सार्थक नाम भी आवश्यक हैं।

कालों के नामे में हमने केवल प्रचलित "आसन्न भूतकाल" के बदले "पूर्ण वर्तमानकाल" नाम रक्खा है। इस काल से भूतकाल में आरंभ होनेवाली क्रिया की पूर्णता वर्तमान काल में सूचित होती है; इसलिए यह पिछला नाम ही अधिक सार्थक जान पड़ता है और इससे कालों के नामों में एक प्रकार की व्यवस्था भी आ जाती है।]

[३] अर्थ।

३५९—क्रिया के जिस रूप से विधान करने की रीति का बोध होता है उसे "अर्थ" कहते हैं; जैसे, लड़का जाता है (निश्चय), लड़का जावे (संभावना), तुम जाओ (आज्ञा), यदि लड़का जाता तो अच्छा होता (संकेत)।