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[टी॰—हिंदी के अधिकांश व्याकरणों में इस रूपांसर का विचार अलग नहीं किया गया, किंतू काज के साथ मिला दिया गया है। आदम साहब के व्याकरण में "नियम" के नाम से इस रूपातर का विचार हुआ है और पाध्ये महाशय ने स्यात् मराठी के अनुकरण पर अपनी "भाषातत्वदीपिका" में इसका विचार 'अर्थ' नाम से किया है। इस रूपांतर का नाम काले महाशय ने भी अपने अँगरेजी-संस्कृत व्याकरण में (लोट्, विधि लिड्, आदि के लिए) "अर्थ" ही रक्खा है। यह नाम "नियम" की अपेक्षा अधिक प्रचिलत है; इसलिए हम भी इसका प्रयोग करते हैं, यद्यपि यह थोडा बहुत भ्रामक अवश्य है।

क्रिया के रूप में केवल समय और पूर्ण अथवा अपूर्ण अवस्था ही का बोध नहीं होता, किंतु निश्चय, संदेह, संभावना, आज्ञा, संकेत आदि को भी बोध होती हैं, इसलिए इन रूपों का भी व्याकरण में संग्रह किया जाता है। इन रूप से काल का भी बोध होता है और अर्थ का भी, और किसी किसी रूप में ये दोनों इतने मिले रहते हैं कि इनको अलग अलग करके बताना कठिन हो जाता है, जैसे, "वहाँ न जाना पुत्र, कहीं।" (एकात॰)। इस वाक्य में केवल आज्ञार्थ ही नहीं है, किंतु भविष्यत् काल भी है, इसलिए यह निश्चत करना कठिन है कि "जाना" काल का रूप है अथवा अर्थका। कदाचित् इसी कठिनाई से बचने के लिए हिंदी के वैयाकरण माल और अर्थ को मिलाकर क्रिया के रूपों की वर्गीकरण करते है। इसके लिए उन्हें काल के लक्षण में यह कहना पड़ता है कि "क्रिया का 'काल' समय के अतिरिक्त व्यापार की अवस्था भी बताता है अर्थात् व्यापार समाप्त हुआ या नहीं हुआ, होगा अथवा उसके होने में संदेह है।" 'काल' के लक्षण को इतना व्यापक कर देने पर भी आज्ञा, संभावना और संकेत के अर्थ बच जाते हैं और इन अर्थो के अनुसार भी क्रिया के रूप का वर्गीकरण करना आवश्यक होता है। इसलिए समय और पूर्णता वा अपूर्णता के सिवा क्रिया के जो और अर्थ होते है, उनके अनुसार अलग वर्गीकरण करना उचित है, यद्यपि इस वर्गीकरण में थोड़ी बहुत आशास्त्रीयता अवश्य है।]

३६०—हिंदी मे क्रियाओं के मुख्य पाॅच अर्थ होते हैं—(१) निश्चयार्थ (२) संभावनार्थ (३) संदेहार्थ (४) अज्ञार्थ और (५) संकेतार्थ।