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होते है, जैसे, आन और अनकर। उदा॰—शकुंतला स्नान करके खड़ी है" (शकुं॰)। "दूत ने आनकर यह खबर दी।" "आन पहुँची"। कविता में स्वरांत धातु के परे कभी कभी "य" जोड़कर पूर्वकालिक कृदंत अव्यय बनाते हैं, जैसे, जाना-जाय, बनाना-बनाय, इत्यादि। पूर्वकालिक कृदंत को "य" प्रत्यय संस्कृत के "य", प्रत्यय से निकला है और उसका एक पूर्वकालिक कृदंत "विहाय" (छोड़कर) अपने मूल रूप में हिंदी कविता में आता है, जैसे, "तप विहाय जेहि भावै भोगू।" (राम॰)।

(क) पूर्वकालिक कृदंत अव्यय से बहुधा मुख्य क्रिया के पहले होनेवाले व्यापार की समाप्ति का बोध होता है, जैसे, "हम नगर देखकर लौटे।" क्रिया-समाप्ति के अतिरिक्त, पूर्वकालिक क्रिया से नीचे लिखे अर्थ पाये जाते हैं—

(१) कार्य-कारण, जैसे, लड़का कुसंग में पड़कर बिगड़ गया। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं। (राम॰)।

(२) रीति, जैसे, बच्चा दौड़कर चलता है। "सींग कटाकर बछड़ो मे मिलना।" (कहा॰)।

(३) द्वारा, जैसे, इस पवित्र आश्रम के दर्शन करके हम अपना जन्म सफल करे। (शकु॰)। फॉसी लगाकर मरना।

(४) विरोध, जैसे, तुम ब्राह्मण होकर संस्कृत नही जानते। पानी में रहकर मगर से बैर। (कहा॰)।

३८१–वर्तमानकालिक कृदत के "ता" के "ते" आदेश करके उसके आगे "ही" जोड़ने से तात्कालिक कृदंत अव्यय बनता हैं; जैसे, बोलतेही, आतेही, इत्यादि। इससे मुख्य क्रिया के साथ होनेवाले व्यापार की समाप्ति का बोध होता है, जैसे, "उसने आतेही उपद्रव मचाया है।"

३८२—अपूर्ण क्रियाद्योतक कृदत अव्यय का रूप तात्कालिक कृदंत अव्यय के समान "ता" को "ते" आदेश करने से बनता है, परंतु उसके साथ "ही" नहीं जोड़ी जाती, जैसे, सोते, रहते, देखते,