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विभक्तियाँ संयोगात्मक हैं, अर्थात् कारकों में भेद करने के लिए शब्दों के अंत में अन्य शब्द नहीं आते; जैसे, मनुष्य शब्द का संबंध-कारक संस्कृत में "मनुष्यस्य" होता है, हिंदी की तरह "मनुष्य का" नहीं होता। दूसरे, क्रिया के पुरुष और वचन में भेद करने के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम का अर्थ क्रिया के ही रूप से प्रकट होता है, चाहे उसके साथ सर्वनाम लगा हो या न लगा हो, जैसे, "गच्छति" का अर्थ "स गच्छति" होता है। यह संयोगात्मकता वर्तमान हिंदी के कुछ सर्वनामों में और संभाव्य-भविष्यत्काल में पाई जाती है, जैसे, मुझे, किसे, रहूँ, इत्यादि। इस विशेपता की कोई कोई बात बंगाली भाषा में भी अब तक पाई जाती है, जैसे "मनुष्येर" संबंधकारक में और "कहिलाम" उत्तम पुरुष में। आगे चलकर संस्कृत की यह संयोगात्मकता बदलकर व्यवच्छेदकता हो गई।

अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रन्थों से जान पड़ता है कि ईसवी सन के कोई तीन सौ बरस पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जिसमें भिन्न भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं। स्त्रियों, बालकों और शूद्रों से आर्य-भाषा का उच्चारण ठीक ठीक न बनने के कारण इस नई भाषा का जन्म हुआ था और इसका नाम "प्राकृत" पड़ा। "प्राकृत" शब्द "प्रकृति" (मूल) शब्द से बना है और उसका अर्थ "स्वाभाविक" "गँवारी" है। वेदों में गाथा नाम से जो छंद पाये जाते हैं उनकी भाषा पुरानी संस्कृत से कुछ भिन्न है, जिससे जान पड़ता है कि वेदों के समय में भी प्राकृत भाषा थी। सुभीते के लिए वैदिक काल की इस प्राकृत को हम पहली प्राकृत कहेंगे और ऊपर जिस प्राकृत का उल्लेख हुआ है उसे दूसरी प्राकृत। पहली प्राकृत ही ने कई शताब्दियों के पीछे दूसरी प्राकृत का रूप धारण किया।