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जिऊँ, जिओ, पिए वा पीवे, सिएँ वा सीवे, छुए वा छुवे।

(इ) एकारांत धातुओं में ऊँ और ओ को छोड़ शेष प्रत्ययों के पहले "व" का आगम होता है; जैसे, सेवे, खेवे, देवे, इत्यादि।
(ई) देना और लेना क्रियाओं के धातुओं से विकल्प से (अ) और (इ) के अनुसार प्रत्ययों का आदेश होता है; जैसे, दूँ (देऊँ), दे (देवे), दो (देओ), लूँ (लेऊँ), ले (लेवे), लो (लेओ)।
(उ) आकारांत धातुओं के परे ए और एँ के स्थान में विकल्प से क्रमश: य और यँ आते हैं; जैसे जाय, जायँ, खाय, खायँ, इत्यादि।
(ऊ) "होना" के रूप ऊपर लिखे नियमों के विरुद्ध होते हैं। ये आगे दिये जायँगे। (अं॰—३८७)।

[सं॰—कई लेखक जावो, पिये, जाये, जाव, आदि रूप लिखते हैं, पर ये अशुद्ध हैं।

(२) सामान्य भविष्यत् काल की रचना के लिए संभाव्य भविष्यत् के प्रत्येक पुरुष में पुल्लिंग एकवचन के लिए गा, पुल्लिंग बहुवचन के लिए गे, और स्त्रीलिग एकवचन तथा वहुवचन के लिए गी लगाते हैं; जैसे, जाऊँगा, जायँगे, जायगी, जाओगी आदि।

[सु॰—"भाषा-प्रभाकर" में स्त्रीलिंग बहुवचन का चिन्ह गीं लिखा है; परंतु भाषा में "गी" ही का प्रचार है और स्वयं वैयाकरण ने जो उदाहरण दिये है उनमें भी "गी" ही आया है। इस प्रत्यय के संबंध में हमने जो नियम दिया है वह सितारे-हिंद और पं॰ रामसजन के व्याकरणों में पाया जाता है। सामान्य भविष्यत् का प्रत्यय "गा" संस्कृत—गतः, प्राकृ॰—गओ से निकला हुआ जान पड़ता है। क्योंकि यह लिंग और वचन के अनुसार बदलता है तथा इसके और मूल क्रिया के बीच में 'ही' अव्यय असकता है।(अं॰—३२७)।

(३) प्रत्यक्ष विधि का रूप संभाव्य भविष्यत् के रूप के समान होता है; दोनों में केवल मध्यम पुरुष के एकवचन का अंतर है।