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प्राकृत का जो सबसे पुराना व्याकरण मिलता है वह वररुचि का बनाया है। वररुचि ईसवी सन के पूर्व पहली सदी में हो गये हैं। वैदिक काल के विद्वानों ने देववाणी को प्राकृत-भाषा की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के नियमों से उसे नियंत्रित कर दिया। इस परिमार्जित भाषा का नाम 'संस्कृत, हुआ जिसका अर्थ "सुधारा हुआ" अथवा "बनावटी" है। यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है। संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने जिनमें से पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है। विद्वान् लोग पाणिनि का समय ई॰ सन् के पूर्व सातवीं सदी में स्थिर करते हैं और संस्कृत को उनसे सौ वर्ष पीछे तक प्रचलित मानते हैं।

पहली प्राकृत में संस्कृत की संयोगात्मकता तो वैसी ही थी, परंतु व्यंजनों के अधिक प्रयोग के कारण उसकी कर्ण-कटुता बहुत चढ़ गई थी। पहली और दूसरी प्राकृत मे अन्य भेदों के सिवा यह भी एक भेद हो गया था कि कर्ण-कटु व्यंजनों के स्थान पर स्वरों की मधुरता आ गई, जैसे 'रघु' का 'रहु' और 'जीवलोक' का 'जीअलोअ' हो गया।

बौद्ध-धर्म के प्रचार से दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। आजकल यह दूसरी प्राकृत पाली-भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका विकास धीरे धीरे होता गया और कुछ समय बाद उसकी तीन शाखाएँ हो गई, अर्थात् मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री। शौरसेनी-भाषा प्रायः उस देश में बोली जाती थी जिसे आजकल संयुक्त-प्रदेश कहते हैं। मागधी मगध-देश वा बिहार की भाषा थी और महाराष्ट्री का प्रचार दक्षिण के बंबई, बरार आदि प्रांतों में था। बिहार और संयुक्त-