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प्रदेश के मध्य भाग में एक और भाषा थी जिसको अर्द्धमागधी कहते थे । वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी । कहते हैं कि जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी इसी अर्द्धमागधी में जैन-धर्म उपदेश देते थे। पुराने जैन ग्रन्थ भी इसी भाषा में हैं। बौद्ध और जैन- धर्म के संस्थापकों ने अपने धर्मों के सिद्धांत सर्व-प्रिय बनाने के लिए अपने ग्रन्थ बोलचाल की भाषा अर्थात् प्राकृत में रचे थे। फिर काव्य और नाटकों में भी उसका प्रयोग हुआ।

थोड़े दिनों पीछे दूसरी प्राकृत में भी परिवर्तन हो गया । लिखित प्राकृत का विकास रुक गया, परतु कथित प्राकृत विकसित अर्थात् परिवर्तित होती गई। लिखित प्राकृत के आचार्यों ने इसी विकाशपूर्ण भाषा का उल्लेख अपभ्रंश नाम से किया है । "अप- भ्रंश" शब्द का अर्थ “बिगड़ी हुई” भाषा है। ये अपभ्रश-भाषाएँ भिन्न भिन्न प्रान्तों में भिन्न भिन्न प्रकार की थीं । इनके प्रचार के समय का ठीक ठीक पता नहीं लगता, पर जो प्रमाण मिलते हैं उनसे जाना जाता है कि ईसवी सन के ग्यारहवें शतक तक अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी । प्राकृत के अंतिम वैयाकरण हेमचंद्र ने, जो बारहवे शतक मे हुए हैं, अपने व्याकरण में अपभ्रश का उल्लेख किया है ।

अपभ्रंशों में संस्कृत और दोनों प्राकृतों से यह भेद हो गया कि उसकी संयोगात्मकता जाती रही और उसमें व्यवच्छेदकता आ गई, अर्थात् कारकों का अर्थ प्रकट करने के लिए शब्दों में विभ- क्तियों के बदले अन्य शब्द मिलने लगे और क्रिया के रूप से सर्वनामों का बोध होना मिट गया ।

हर प्राकृत के अपभ्रश पृथक् पृथक् थे और वे भिन्न भिन्न प्रातों में प्रचलित थे । भारत की प्रचलित आर्य-भाषाएँ न सस्कृत से निकली हैं, न प्राकृत से, किंतु अपभ्रशों से । लिखित साहित्य