पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/३७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(३५८)


(२) "देना" जोड़ने से अनुमति-बोधक क्रिया बनती है; जैसे, मुझे जाने दीजिये, उसने मुझे बेलने न दिया, इत्यादि।

(३) अवकाश-बोधक क्रिया अर्थ से अनुमति-बाधक क्रिया की विरोधिनी है। इसमें "देना" के बदले "पाना" जोड़ा जाता है; जैसे, "यहाँ से जाने न पावेगी" (शकु॰)। "बात न होने पाई।"

(अ) "पाना" क्रिया कभी-कभी पूर्वकालिक कृदंत के धातुवत् रूप के साथ भी आती है; जैसे, "कुछ लोगों ने श्रीमान् को बड़ी कठिनाई से एक दृष्टि देख पाया। (शिव॰)।

[टी॰—अधिकांश हिंदी व्याकरणों में "देना" और "पाना" दोनों से बनी हुई संयुक्त क्रियाएँ अवकाश-बोधक कही गई हैं; पर दोनेां से एक ही प्रकार के अवकाश का बोध नहीं होता और दोनों में प्रयोग का भी अन्तर है जो आगे (अ॰—६३६—६३७ मे) बताया जायगा। इसलिये हमने इन दोनों क्रियाओं को अलग-अलग माना है।]

(२) वर्त्तमानकालिक कृदंत के येाग से बनी हुई

४०७—वर्त्तमानकालिक कृदंत के आगे आना, जाना वा रहना क्रिया जोड़ने से नित्यता-बोधक क्रिया बनती है। इस क्रिया में कृदंत के लिंग-वचन विशेष्य के अनुसार बदलते हैं; जैसे, यह बात सनातन से होती आती है, पेड़ बढ़ता गया, पानी बरसता रहेगा, इत्यादि।

(अ) इन क्रियाओं में अर्थ की जो सूक्ष्मता है वह विचारणीय है। "लड़की गाती जाती है," इस वाक्य मे "गाती जाती है" का यह भी अर्थ है कि लड़की गाती हुई जा रही है। इस अर्थ में "गाती जाती है" संयुक्त क्रिया नही है। (अं॰ ४००)।
(आ) "जाता रहना" को अर्थ बहुधा "मर जाना", "नष्ट