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(४) हिंदी।

प्राकृत भापाएँ ईसवी सन् के कोई आठ-नौ सौ वर्ष तक और अपभ्रंश-भाषाएँ ग्यारहवें शतक तक प्रचलित थीं । हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में हिंदी की प्राचीन कविता के उदाहरण पाये जाते हैं। जिस भाषा में मूल “पृथ्वीराज रासो" लिखा गया है उसमें “षट भाषा" का मेल है । इस "काव्य" में हिंदी का पुराना रूप पाया जाता है। इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी वर्तमान हिंदी का विकास ईसवी सन् की बारहवीं सदी से हुआ है। “शिवसिंह सरोज" में पुष्य नाम के एक कवि का उल्लेख है जो “भाखा की जड़" कहा गया है और जिसका समय सन् ७१३ ई० दिया गया है। पर न तो इस कवि की कोई रचना मिली है। और न यह अनुमान हो सकता है कि उस समय हिंदी-भाषा प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पृथक् हो गई थीं । बारहवें शतक में भी यह भाषा अधवनी अवस्था में थी । तथापि, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का प्रचार मुसलमानों के भारत-प्रवेश के समय

    “भला हुआ जु मारिया, बहिणि महारा कत्तु ।
     लज्जेजंतु वयसिअहु जह भग्गा घरु एतु ॥”

( हे बहिन, भला हुआ जो मेरा पति मर गया । यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखिर्यों में लजित होती । )

    + संस्कृतं प्राकृत चैव शौरसेनी तदुद्भवा ।
     ततोऽपि मागधी तद्वत् पैशाची देशजेति यत् ॥
     + उच्छिष्ट छद चंदह बयन सुनत सु जपिय नारि ।
     तनु पवित्र पावन कविय उकति अनूठ उधारि ॥

‘छद ( कविता ) उच्छिष्ट है' चद का यह वचन सुनकर स्त्री ने कहा-पाचन कवियों की अनूठी उक्ति का उद्धार करने से शरीर पवित्र हो जाता है।