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४०९—भूतकालिक कृदंत के आगे "करना" क्रिया जेड़ने से अभ्यासबोधक क्रिया बनती है; जैसे, तुम हमे देखो न देखो, हम तुम्हे देखा करें; "बारह बरस दिल्ली रहे, पर भाड़ ही झोंका किये (भारत॰)।

[सू॰—इस क्रिया का प्रचलित नाम "नित्यता-बाधक" है; पर जिसको हमने नित्यता-बोधक लिखा है (अ॰—४०७) उसमें और इस क्रिया में रूप के सिवा अर्थ का भी (सूक्ष्म) अंतर है; जैसे, "लड़का पढ़ता रहता है" और "लड़का पढ़ा करता है।" इसलिए इस क्रिया का नाम अभ्यास-बोधक उचित जान पड़ता है।]

४१०—भूतकालिक कृदंत के आगे "चाहना" क्रिया जेड़ने से इच्छा-बोधक संयुक्त क्रिया बनती है; जैसे, तुम किया चाहोगे तो सफाई होनी कौन कठिन है!" (परी॰), "देखा चहौं जानकी माता" ( राम॰), "बेटाजी, हम तुम्हें एक अपने निज के काम से भेजा चाहते हैं।" (मुद्रा॰)।

(अ) अभ्यास-बोधक और इच्छा-बोधक क्रियाओं में "जाना" का भूतकालिक कृदंत "आया" और "मरना" का "मरा" होता है; जैसे, जाया करता है, मरा चाहता है। (अं॰—३७६)।
(आ) इच्छा-बोधक क्रिया के रूप में "चाहना" का आदर-सूचक रूप "चाहिये" भी आता है (अं॰—४०५); जैसे, "महा- राज, अब कही बलरामजी का विवाह किया चाहिये।" (प्रेम॰)। "मातु उचित पुनि आयसु दीन्हा। अवशि शीश धर चाहिये कीन्हा।" (राम॰)। यहाँ भी "चाहिये" से कर्तव्य का बोध होता है और यह क्रिया भावेप्रयाग में आती है।