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(इ) इच्छाबोधक क्रिया से कभी-कभी आसन्न भविष्यत् का भी बोध होता है, जैसे, "रानी रोहिताश्व का मृत-कंबल फाड़ा चाहती है कि रगभूमि की पृथ्वी हिलती है।" (सत्य॰)। "तू जय शब्द कहा चाहती थी, सो आँसुओं ने रोक लिया।" (शकु॰)। "गाड़ी आया चाहती है"। "घड़ी बजा चाहती है।" इसी अर्थ में कर्तृवाचक संज्ञा (अं॰—३७३) के साथ "होना क्रिया के सामान्य कालों के रूप जोड़ते हैं, जैसे, "वह जानेवाला है, "अब यह मरनहार भा साँचा। (राम॰)।
(ई) इच्छा-बोधक क्रियाओं में क्रियार्थक संज्ञा के अविकृत रूप को प्रयोग अधिक होता है, जैसे, मैंने तपस्वी की कन्या को रोकना चाहा" (शकु॰) "(रानी) उन्मत्त की भाँति उठकर दौड़ना चाहती है" (सत्य॰) भूतकालिक कृदंत से बने कालों में बहुधा क्रियार्थक संज्ञा ही आती है; जैसे, "मैंने उसे देखा चाहा" के बदले "मैने उसे देखना चाहा" अधिक प्रयुक्त है।

(४) पूर्वकालिक कृदंत के मेल से बनी हुई।

[टी॰—पूर्वकालिक कृदंत का एक रूप (अ॰—३८०) धातुवत् होता है; इसलिए इस कृदंत से बनी हुई संयुक्त क्रियाओं के हिंदी के वैयाकरण "धातु से बनी हुई" कहते हैं, पर हिंदी की उप-भाषाओं और हिंदुस्थान की दूसरी आर्य-भाषाओं को मिलान करने से जान पड़ता है कि इन क्रियाओं में मुख्य क्रिया धातु के रूप में नहीं, किंतु पूर्वकालिक कृदंत के रूप में आती है। स्वयं बोलचाल की कविता में यह रूप प्रचलित है; जैसे, "मन के नद के उमगाय रही।" (क॰ क॰)। यही रूप ब्रजभाषा में प्रचलित है, जैसे, "जिसका यश छाये रहा चहूँ देश।" (प्रेम॰)। रामचरितमानस में इसके अनेके उदाहरण है, जैसे, "राखि न सकहिं न कहि सक जाहू।" दूसरी भाषाओं के उदाहरण ये है—करून चुकणें (मराठी), कही चुकवूँ (गुज॰), करिया चुरुन (बँगला), करि सारिया (उढ़िया)]