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जाना—यह क्रिया कर्मवाच्य और भाववाच्य बनाने में प्रयुक्त होती है; इसलिए कई एक सकर्मक क्रियाएँ इसके योग से अककर्म हो जाती हैं, जैसे,

कुचलना—कुचल जाना खोना—खो जाना
छाना—छा जाना लिखना—लिख जाना
धोना—धो जाना सीना—सी जाना
छूना—छू जाना भूलना—भूल जाना

पकड़ना—पकड़ जाना

उदा॰—मेरे पैर के नीचे फाई कुचले गया। मैं चांडालों से छू गया हूँ। "यदि राक्षस लड़ाई करने के उद्यत होगा तौ भी पकड़ जायगा"। (मुद्रा॰)।

इसका प्रयोग बहुधा स्थिति वा विकारदर्शक अकर्मक क्रियाओं के साथ पुर्णता के अर्थ में होता है; जैसे, हो जाना, बन जाना, फैल जाना, बिगड़ जाना, फूट जाना, मर जाना, इत्यादि।

व्यापारदर्शक क्रियाओं में "जाना" के थेग से बहुधा शीघ्रता का बोध होता है; जैसे, खा जाना, निगल जाना, पी जाना, पहुँच जाना, जान जाना, समझ जाना, आ जाना, घूम जाना, कह जाना, इत्यादि। कभी कभी "जाना" का अर्थ प्रायः स्वतन्त्र होता है और इस अर्थ में "जाना" क्रिया "आना" के विरुद्ध हेती है; जैसे, देख जाओ = देखकर जाओ, लिख जाओ = लिखकर जाओ, लौट जाना = लौटकर जाना, इत्यादि।

लेना—जिस क्रिया के व्यापार का लाभ कर्त्ता ही को प्राप्त होता है उसके साथ "लेना" क्रिया आती है। "लेना" के योग से बनी हुई संयुक्त क्रिया का अर्थ संस्कृत के आत्मनेपद के समान होता है, जैसे, खा लेना, पी लेना, सुन लेना, छीन लेना, कर लेना, समझ लेना, इत्यादि।