"होना" के साथ "लेना" से पूर्णता का अर्थ पाया जाता है, जैसे, "जब तक पहले बातचीत नहीं हो लेती तब तक किसीका किसीके साथ कुछ भी संबंध नही हो सकता।" (रघु॰)। खो लेना, मर लेना, त्याग लेना आदि संयेाग इस लिये अशुद्ध हैं कि इनके व्यापार से कर्त्ता का कोई लाभ नहीं हो सकता।
देना—यह क्रिया अर्थ में "लेना" के विरुद्ध है और इसका उपयेाग तभी होता है जब इसके व्यापार का लाभ दूसरे के मिलता है; जैसे, कह देना, छोड़ देना, समझा देना, खिला देना, सुना देना, कर देना, इत्यादि। इसका प्रयेाग संस्कृत के परस्मैपद के समान होता है।
"देना" का संयोग बहुधा सकर्मक क्रियाओं के साथ होता है; जैसे, मार देना, डाल देना, खो देना, त्याग देना, इत्यादि। चलना, हँसना, रोना, छींकना, आदि अकर्मक क्रियाओं के साथ भी "देना" आता है; परन्तु उनके साथ इसका अर्थ बहुधा अचानकता का होता है।
"लेना" और "देना" अपने अपने कृदंतों के साथ भी आते हैं, जैसे, ले लेना, दे देना।
पड़ना—यह क्रिया आवश्यकता-बोधक क्रियाओं में भी आती म है। अवधारण-बोधक क्रियाओं में इसका अर्थ बहुधा "जाना" के समान होता है और उसीके समान इसके योग से कई एक सकर्मक क्रियाएँ अकर्मक हो जाती हैं ; जैसे, सुनना—सुन पड़ना, जानना— जान पड़ना। देखना—देख पड़ना, सूझना—सूझ पड़ना । समझना—समझ पड़ना।