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से होने लगा था। यह प्रचार यहाँ तक बढ़ा कि पीछे से भाषा के लक्षण में ‘पारसी' भी, रक्खी गई[१]

विद्वान् लोग हिंदी-भाषा और साहित्य के विकास को नीचे लिखे चार भागों में बाँटते हैं-

१---आदि-हिंदी---यह उस हिंदी का नमूना है जो अपभ्रंश से पृथक् होकर साहित्य-कार्य के लिये बन रही थी । यह भाषा दो कालों में बॉटी जा सकती है-(१) वीर-काल (१२००-१४००) और धर्म-काल (१४००-१६०० )

वीर-काल में यह भाषा पूर्ण रूप से विकसित न हुई थी और इसकी कविता का प्रचार अधिकतर राजपूताने में था। इससे बाहर के साहित्य की कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। उसी समय महोबे में जगनिक कवि हुआ, जिसके किसी ग्रंथ के आधार पर “अल्हा" की रचना हुई। आजकल इस काव्य की मूल-भाषा क्रय ठीक ठीक पता नहीं लग सकता, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रांतों के लेखकों और गवैयों ने इसे अपनी अपनी बोलियों का रूप दे दिया है। विद्वानों का अनुमान है कि इसकी मूल-भाषा बुंदेलखंडी थी और यह बात कवि की जन्मभूमि बुंदेलखंड में होने से पुष्ट होती है।

प्राचीन हिंदी का समय बतानेवाली दूसरी रचना भक्तों के साहित्य में पाई जाती है जिसका समय, अनुमान से, १४००-१६८० है। इस काल के जिन जिन कवियों के ग्रंथ आजतक लोगों में प्रचलित हैं उनमें से बहुतेरे वैष्णव थे और उन्हीं के मार्ग-प्रदर्शन से पुरानी हिंदी के उस रूप में, जिसे ब्रज़-भाषा कहते हैं, कविता रची गई । वैष्णव-सिद्धांतों के प्रचार का आरंभ रामानुज से माना


  1. ब्रज-भाखा भाखा रुचिर कहैं सुमति सब कोय।
    मिलै संस्कृत पारस्यौ वै अति सुगम जु होय॥ (काव्य-निर्णय)