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[ टी०--राजा शिवप्रसाद ने अपने हिदी-व्याकरण में प्रत्यय, अव्यय, विभक्ति और उपसर्ग, चारों को उपसर्ग माना है; परंतु उन्होंने इसको कोई कारण नहीं लिखा और न उपसर्ग का कोई लक्षण ही दिया जिससे उनके मत की पुष्टि होती । ऐसी अवस्था में हम उनके किये वर्गीकरण के विषय में कुछ नहीं कह सकते । भाषा-प्रभाकर में राजा साहब के मत पर आक्षेप किया गया है, परंतु लेखक ने अपनी पुस्तक में संस्कृत-उपसर्गों के छोड़ और किसी भाषा के उपसर्गों का नाम तक नहीं लिया । उर्दू-उपसर्ग तो भाषा-प्रभाकर में आ ही नहीं सकते, क्योंकि लेखक महाशय स्वय लिखते है कि हिंदी में वरतुतः पारसी, अरबी आदि शब्दों का प्रयेाग कहाँ ?' पर संवैधसूचकों की तालिका में “बदले शव्द न जाने उन्होंने कैसे लिख दिया ? जो हो, इस विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि उपसर्गयुक्त उर्दू शब्द हिंदी में आते हैं। हिंदी-उपसर्गों के विषय में भाषा-प्रभार में केवल इतना ही लिखा है कि‘स्वतंत्र हि दी-शब्दों में उपसर्ग नहीं लगते हैं। इस उक्ति का खडन इस अध्याय में दिये हुए उदाहरण से हो जाता है। भट्टजी ने अपने व्याकरण में उपसर्गों की तालिका दी है, परंतु उनके अर्थ नहीं समझाये, यद्यपि प्रत्यये का अर्थ उन्होंने विस्तारपूर्वक लिखा है। उन देने पुस्तकों में दिये हुए उपसर्ग के लक्षण न्य-संगत नहीं जान पड़ते । ] ।

तीसरा अध्याय।

संस्कृत प्रत्यय।

( क ) संस्कृत कृदंत ।

अ ( कतृवाचक )-

चुर् ( चुराना )---चर चर (चलना )-चर ( दूत )

दीपू ( चमकना )-दीप दिवू ( चमकना )--देव

नद् (शब्द करना)----नद धृ ( धरना }----धर ( पर्वत )

सृप ( सरकना )-सर्प बुधु ( जानना )--- बुध

है ( हरना )---हर स्मृ (चाहना )स्मर