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हा—(कर्तृवाचक)—

काटना—कटहा, मारना—मरकहा, चराना—चरवाहा।

(ख) हिंदी-तद्धित।

—यह प्रत्यय कई एक संज्ञाओं में लगाकर विशेषण बनाते है; जैसे,

भूख—भूखा प्यास—प्यासा मैल—मैला
प्यार—प्यारा ठंड—ठंडा खार—खारा
(अ) कभी-कभी एक संज्ञा से दूसरी भाववाचक अथवा समुदायवाचक संज्ञा बनती है; जैसे,
जोड़—जोड़ा चूर—चूरा सराफ—सराफा
बजाज—बजाजा बोझ—बोझा
(आ) नाम और जातिसूचक संज्ञाओं में यह प्रत्यय अनादर

अथवा दुलार के अर्थ में आता है; जैसे,

शंकर—शंकरा ठाकुर—ठाकुर बलदेव—बलदेवा

[सू॰—रामचरितमानस तथा दूसरी पुरानी पुस्तकों की कविता में यह प्रत्यय मात्रा-पूर्त्ति के लिये, संज्ञाओ के अत में लगा हुआ पाया जाता

है; जैसे, हंस—हंसा, दिन—दिना, नाम—नामा]
(३) पदार्थों की स्थूलता दिखाने के लिये पदार्थ-वाचक शब्दों के अत्य स्वर के स्थान में इस प्रत्यय का आदेश होता है; जैसे,

लकड़ी—लकड़ा, चिमटी—चिमटा, घड़ी—घड़ा (विनेाद में)

[सं॰—यह प्रत्यय बहुधर ईकारात स्त्रीलिंग संज्ञाओं में, पुल्लिंग बनाने के लिये लगाया जाता है। इसका उल्लेख लिंग-प्रकरण में किया गया है।]

(ई) द्वार—द्वारा; इस उदाहरण में आ के येाग से अव्यय बना है।

आँ—यह, वह, जो और कौन के परे इस प्रत्यय के योग से स्थानवाचक क्रियाविशेषण बनने हैं, जैसे, यहाँ, बहाँ, जहाँ, कहाँ, तहाँ।