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३---आधुनिक हिंदी-यह काल सन् १८०० से १६०० ईसवी तक है। इसमें हिंदी-गद्य की उत्पत्ति और उन्नति हुई । अंगरेजी राज की स्थापना और छापे के प्रचार से इस शताब्दी में हिंदी गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें बनीं और छपीं । साहित्य के सिवा इतिहास, भूगोल, व्याकरण, पदार्थ-विज्ञान और धर्म पर इस काल में कई पुस्तकें लिखी गई । सन् १८५७ ई० के वलचे के पीछे देश में शाति-स्थापना होने पर समाचार-पत्र, मासिक-पत्र, नाटक, उप-न्यास और समालोचना का आरंभ हुआ। हिंदी की उन्नति का एक विशेष चिह्न इस समय यह है कि इसमें खड़ी-बोली (बोलचाल की भाषा) की कविता लिखी जाती है। इसके साथ ही हिंदी मे संस्कृत शब्दों का निरंकुश प्रयोग भी बढ़ता जाता है। इस काल में शिक्षा के प्रचार से हिंदी की विशेप उन्नति हुई।

पादरी गिलक्राइस्ट के उत्तेजन से लल्लू जी लाल ने सन् १८०४ ई० मैं "प्रेमसागर” लिखा, जो आधुनिक हिंदी-गद्य का प्रथम ग्रंथ है। इनके बनाये और प्रसिद्ध ग्रंथ "राजनीति" ( ब्रज-भाषा के गद्य में ), "सभा-विलास", "लाल-चंद्रिका" ( “बिहारी-सतसई" पर टीका ), "सिंहासन-बत्तीसी” और “बैताल-पचीसी" हैं । इस काल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर ( १८१५ ), ग्वालकवि (१८१५), पजनेश ( १८१६ ), रघुराजसिंह ( १८३४ ), दीनदयालगिरि ( १८५५) और हरिश्चंद्र ( १८८० ) हैं।

गद्य लेखकों में लल्लूजीलाल के पश्चात् पादरी लोगों ने कई विषयों की पुस्तकें अँगरेजी से अनुवाद कराकर छपवाई। इसी समय से हिंदी में क्रिस्तानी धर्म की पुस्तकों का छपना आरंभ हुआ। शिक्षा-विभाग के लेखकों में पं० श्रीलाल, पं० वशीधर वाजपेयी और राजा शिवप्रसाद, हैं। शिवप्रसाद ऐसी हिंदी के पक्षपाती थे जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों समझ सकें । इनकी रचना