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[सू॰—छोटे-छोटे और साधारण सामासिक शब्द बहुधा दूसरे से मिलाकर लिखे जाते हैं, पर बड़े-बड़े और असाधारण सामासिक शब्द योजक चिह्न के द्वारा, जो अँगरेजी के 'हाईफन' का अनुकरण है, मिलाए जाते हैं, जैसे, (१) रामपुर, धूपघड़ी, स्त्रीशिक्षा, आसपास, रसोईघर, कैदखाना, (२) चित्र रचना, नाटक-शाला, पथ-प्रदर्शक, सास-ससुर, भला-चंगा। कभी-कभी संस्कृत के ऐसे सामासिक शब्द भी जो संधि के नियमों से मिल सकते हैं, केवल योजक (हाईफन) के द्वारा मिलाए जाते हैं, जैसे, वस्त्र-आभूषण, मत-एकता, हरि-इच्छा। कविता में यह बात विशेष रूप से पाई जाती है, जैसे,

"पराधीन-सम दीन कुमुद मुद-हीन हुए हैं,
पर-उन्नति को देख शोक में लीन हुए हैं।—सर॰।]

४४७—सामासिक शब्दों का संबंध व्यक्त कर दिखाने की रीति को विग्रह कहते हैं। "धन-संपन्न" समास का विग्रह "धन से सपन्न" है, जिससे जान पहता है कि "धन" और "संपन्न" शब्द करण-कारक से संबद्ध हैं। इसी प्रकार जाति-भेद, चंद्रमुख, और त्रिभुज शब्दों का विग्रह यथाक्रम "जाति का भेद", "चंद्र के समान मुख" और "तीन हैं भुज जिसमें" हैं।

४४८—किसी भी सामासिक शब्द में विभक्ति लगाने का प्रयोजन हो तो उसे समास के अंतिम शब्द में जोडते हैं, जैसे, मांबाप से, राजकुल में, भाई-बहिनों को

[सू॰—(१) संस्कृत में इस नियम का एक भी अपवाद नहीं है, परंतु हिदी के किसी-किसी द्वंद्व समास में उपात्य आकारांत*[१] शब्द विकृत रूप में आता है; जैसे, भले-बुरे से, छोटे-बड़ों ने, लड़के-बच्चे को। इस विषय का और विवेचन द्वंद्व-समास के प्रकरण में मिलेगा।

(२) हिंदी में संस्कृत सामासिक शब्दों का प्रचार साधारण है, पर आजकल यह प्रचार बढ़ रहा है। दूसरी भाषाओं और विशेष कर अँगरेजी के विचारों को हिंदी में व्यक्त करने के लिये संस्कृत के सामासिक शब्दों का उपयोग करने में सुभीता है, जिससे इस प्रकार के बहुत से शब्द आजकल हिंदी


  1. * अंक-३१० और आगे देखो।