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उर्दू-उदा॰—सिमाही (अप॰—तिमाही), चहार-दीवारी, शशमाही (अप॰—छमाही)।

(७) मध्यमपदलोपी—जिस समास में पहले पद का संबंध दूसरे पद से बतानेवाला शब्द अध्याहृत रहता है उस समास को मध्यमपदलोपी अथवा लुप्त-पद समास कहते हैं। इस समास के विग्रह में समासगत दोनों पदों का संबंध स्पष्ट करने के लिए उस अध्याहृत शब्द का उल्लेख करना पड़ता है; नहीं तो विग्रह होना संभव नहीं है। इस समास में अध्याहृत पद बहुधा बीच में आता है, इसलिए इस समास को मध्यमपदलोपी कहते हैं।

संस्कृत-उदाहरण—घृतान्न (घृत-मिश्रित अन्न), पर्णशाला (पर्णनिर्मित शाला), छायातरु (छाया-प्रधान तरु), देव-ब्राह्मण (देव-पूजक ब्राह्मण)।

हिदी-उदा॰—दही-बड़ा (दही में डूबा हुआ बड़ा), गुड़म्बा (गुडमें उबाला आम), गुड़धानी, तिलचाँवली, गोबरगनेश, जेबघड़ी, चितकबरा, पनकपड़ा, गीदड़भबकी।

४६४—उपमावाचक कर्मधारय के चार भेद हैं—

(१) उपमान-पूर्वपद—जिस वस्तु की उपमा देते हैं उसका वाचक शब्द जिस समास के प्रारंभ में आता है उसे उपमान-पूर्वपद समास कहते हैं।

उदा॰—चंद्रमुख (चंद्र सरीखा मुख), घनश्याम (घन सरीखा श्याम), वनदेह, प्राण-प्रिय।

(२) उपमानोत्तरपद—चरण-कमल, राजर्षि, पाणिपल्लव।

(३) अवधारणापूर्वपद—जिस समास में पूर्वपद के अर्थ पर उत्तर पद का अर्थ अवलंबित होता है उसे अवधारणापूर्वपद कर्मधारय कहते हैं, जैसे, गुरुदेव (गुरु ही देव अथवा गुरु-रूपी देव), कर्म-बंध, पुरुष-रत्न, धर्म-सेतु, बुद्धि-बल।