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का बाहर लौट गया, कपड़े भीतर के भीतर खो गए, लड़का अभी का अभी कहॉ गया।

(२) दशांतर—गाड़ी कहॉ की कहॉ पहुँची। तुमने वह पुस्तक कहीं की कही रख दी। यह काम कब का कब हुआ।

[सू॰—कभी-कभी दूसरा शब्द अवधारणा-बोधक रूप में (ही के साथ) आता है, जैसे, नीचे का नीचे ही, यहां की यही, वहां का वहीं।]

अपूर्ण-पुनरुक्त-शब्द

५०३—इन शब्दो का बहुत-कुछ विचार द्वंद्व-समास के विवेचन में हो चुका है। यहॉ इनके रूपों का विस्तृत विवेचन किया जाता है। ये शब्द नीचे लिखी रीतियों से बनते हैं—

(अ) दो सार्थक शब्दों के मेल से, जिनमें दूसरा शब्द पहिले का समानुप्रास होता है; जैसे,

संज्ञाएँ—बीच-बचाव, बात-बच्चे, दाल-दलिया, झगड़ा-झाँसा, काम-काज, धौल-धप, जोर-शोर, हलचल।

विशेषण-लूला-लँगड़ा, ऐसा-वैसा, काला-कलूटा, फटा-टूटा, चौड़ा-चकरा, भरा-पूरा।

क्रिया—समझना-बूझना, लेना-देना, लड़ना-भिड़ना, बोलना-चालला, सोचना-विचारना।

अव्यय—यहाँ-वहाँ, इधर-उधर, जहॉ-तहॉ, दाएँ-बाएँ, आर- पार, साँझ-सबेरे, जब-तब, सदा-सर्वदा, जैसे-तैसे।

[सू॰—ऊपर दिए हुए अव्यय के उदाहरण में समूचे शब्द का अर्थ उसके अवयवों के अर्थ से प्रायः भिन्न है, जैसे, जहाँ-तहाँ=सर्वत्र, जब तब=सदा; जैसे तैसे = किसी न किसी प्रकार।]

(आ) एक सार्थक और एक निरर्थक शब्द के मेल से, जिसमें निरर्थक शब्द बहुधा सार्थक शब्द का समानुप्रास रहता है; जैसे,