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(इ) क्रिया--हिनहिनाना, सनसनाना, बकबकाना, पटपटाना, झनझनाना, भिनभिनाना, गड़गड़ाना, छरछराना, इत्यादि।

(ई) क्रियाविशेषण—ये शब्द बहुत प्रचलित हैं—

उदा॰—झटपट, तड़तड़, पटपट, छमछम, थरथर, गटगट, लपझप, भदभद, खदखद, सड़सड़, दनादन, भड़भड़, कटाकट, धड़ाधड़, कड़ाकड़, छमाछम, इत्यादि।

५०५—यहाॅ तक जिन यौगिक शब्दों का विचार किया गया है उनके सिवा एक और प्रकार के शब्द होते हैं जिनसे कोई स्पष्ट अर्थ सूचित नहीं होता और जो अनियमित रूप से मनमाने रचे जा सकते हैं। इन शब्दों को अनर्गल शब्द कहते हैं।

उदा॰—टॉय-टॉय-फिस, लबड़धौधौं, लठ्ठपाँडे, जल-कुकुडा, ढपोलशंख, अगडंबगडं।

[सू॰—ये शब्द यथार्थ में अनुकरणवाचक शब्दों के अंतर्गत हैं; इसलिए इनका अलग भेद मानने की आवश्यकता नहीं है। अपूर्णपुनरुक्त और अनुकरणवाचक शब्दों के समान इनका प्रचार बोलचाल की भाषा में अधिक होता है, पर साहित्यिक भाषा में इनके प्रयोग से एक प्रकार की हीनता पाई जाती है।]

[टी॰—हिंदी के प्रचलित व्याकरणों में पुनरुक्त शब्दों का विवेचन बहुत कम पाया जाता है। इस कमी को कारण यह जान पड़ता है कि लेखक लोग कदाचित् ऐसे शब्दों के निरे साधारण मानते हैं और इनके आधार पर व्याकरण के (उच्च) नियमों की रचना करना अनावश्यक समझते है। इस उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि वे लेखक इन शब्दों को अपनी मातृभाषा के होने के कारण कदाचित् इतने कठिन न समझते हों कि इनके लिए नियम बनाने की आवश्यकता हो। जो हो, ये शब्द इस प्रकार के नहीं है कि व्याकरण में इनकी संग्रह और विचार न किया जाय। पुनरुक्त शब्द हिंदी भाषा की एक विशेषता है और यह विशेषता भरतखंड की दूसरी आर्य्य-भाषाओं में भी पाई जाती है। हमने इन शब्दों का जो विवेचन किया है उसमें अपूर्णता, असंगति आदि दोष संभव हैं, तो भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस पुस्तक में इनका पूर्ण विवेचन करने की चेष्टा की गई है और वह हिंदी की अन्य व्याकरण-पुस्तकों में नहीं पाई जाती।