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(ख) कर्म-पूर्त्ति—अहल्या ने गंगाधर को दीवान बनाया, मैंने चोर को साधु समझ लिया, राजा ब्राह्मण को गुरु मानता है।

(ग) सजातीय कर्म (बहुधा अकर्मक क्रियाओं के साथ)—सिपाही कई लड़ाइयाँ लडा, "सोओ सुख-निँदिया, प्यारे ललन" (नील॰), किसान ने चोर को खूब मार मारी, वही यह नाच नाचते हैं (विचिन्न॰)।

(घ) अपरिचित वा अनिश्चित कर्म—मैंने शेर देखा है, पानी लाओं, लड़का चिट्ठी लिखता है, हम एक नौकर खोजते हैं।

५१९—नामबोधक संयुक्त सकर्मक क्रियाओं का सहकारी शब्द अप्रत्यय कर्म-कारक में जाता है; जैसे, स्वीकार करना, नाश करना, त्याग करना, दिखाई देना, सुनाई देना।

५२०— सप्रत्यय कर्म-कारक बहुधा नीचे लिखे अर्थो से आता है—

(क) निश्चित कर्म में—चोर ने लड़के को मारा, हमने शेर को देखा है, लडका चिट्ठी को पढ़ता है, मालिक ने नौकर को निकाल दिया, चित्र को बनाओ।

(ख) व्यक्तिवाचक, अधिकारवाचक तथा संबंध-वाचक कर्म में, जैसे, हम मोहन को जानते हैं, राजी ने ब्राह्मण को देखा, डाकू गॉव के मुखिया को खोजते थे, महाजन ने अपने भाई को अलग कर दिया, गुरु शिष्य को बुलावेंगे।

(ग) मनुष्यवाचक सर्वनामिक कर्म में—राजा ने उसे निकाल दिया, सिपाही तुमको पकड़ लेगा, लडका किसी को देखता है, आप किसको खोजते हैं?

(घ) करना, बनाना, समझना, मानना इत्यादि अपूर्ण क्रियाओं का कर्म, जब उसके साथ कर्म-पूर्ति आती है; जैसे, ईश्वर राई को पर्वत करता है; अहल्या ने गंगाधर को दीवान बनाया।