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संबंध-सूचक-अव्यय के समान होता है (अं॰—२३९), जैसे, लडका पेड़ के सहारे खडा है, डाक के द्वारा , धर्म के कारण

५३१—भूख,प्यास, जाड़ा, हाथ, ऑख, कान आदि शब्द इस कारक मे बहुधा बहुवचन में आते हैं और इनके पश्चात् विभक्ति का लोप हो जाता है; जैसे, भूखों मरना, जाड़ों मरना, मैंने नौकर के हाथों रुपया भेजा, न आँखों देखा न कानों सुना।

(४) संप्रदान-कारक।

५३२—संप्रदान-कारक नीचे लिखे अर्थो में आता है—

(क) द्विकर्मक क्रिया के गौण कर्म मे—राजा ने ब्राह्मण को धन दिया, गुरु शिष्य को व्याकरण सिखाता है, ढोरों को मैला पानी न पिलाना चाहिये, सौपि गये मोंहि रघुवर थाती।

(ख) अपूर्ण सकर्मक क्रिया के मुख्य कर्म में (विकल्प से)— अहल्या ने गंगाधर को दीवान बनाया, मैं चोर को साधु समझा, राम गोविंद को अपना भाई बताता है, वे तुम्हें मूर्ख कहते हैं, हम जीव को ईश्वर नहीं मानते, नृपहिं' दास दासहिं नृपति (करत)।

[सू॰—"कहना" क्रिया कभी द्विकर्मक और कभी अपूर्ण सकर्मक होती है, और दोनों अर्थो में और और द्विकर्मक क्रियाओं के समान, इसके दो कर्म होते हैं, जैसे, मैं तुमसे समाचार कहता हूँ, और मैं तुमसे (तुमको) भाई कहता हूँ। इन दोनो अधा में इस क्रिया के साथ जहाँ सप्रदान-कारक आता है वहाँ कभी-कभी विकल्प से रण-कारक भी ग्राता है, जैसा ऊपर के उदाहरणों में आया है। इस क्रिया के पिछले अर्थ के दोनों प्रयोगों का एक उदाहरण यह है—देवता तें सुर और असुर कहे दानव ते , दाई को सुधाल दाल पैतिये लहत है।]

(ग) फल वा निमित्त—ईश्वर ने सुनने को दो कान दिये हैं, लड़के सैर को गये राजा लोग इसे शोभा के लिए पालते हैं, वह