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"जैसा को तैसा" और "जैसे को तैसा", इन दो वाक्यांशों में रूप और अर्थ का सूक्ष्म भेद है। पहले से अविकार सूचित होता है, पर दूसरे से जन्य-जनक अथवा कार्य-कारण की समता पाई जाती है।]

(ध) नियमितपन—इस अर्थ में भी ऊपर लिखी रचना होती है; पर यह बहुधा विकृत कारकों में आती है और इसमें आकारान्त शब्द एकारान्त हो जाते हैं, जैसे, सोमवार के सोमवार मेला भरता है, महीने के महीने तनखाह मिलती है, दोपहर के दोपहर, होली के होली, दिवाली के दिवाली, दशहरे के दशहरे

(न) दशांतर—राई का पर्वत, मंत्री का राजा होना, दिन की रात हो गई, बात का बतक्कड़, कुछ का कुछ, फिर राँग का सोना हुआ (सर॰)।

(प) विषय—कान का कच्चा, आँख का अन्धा, गाँठ का पूरा, बात का पक्का, धन की इच्छा, "शपथ तुम्हार, भरत कै अना (राम॰), गंगा की जय, नाम की भूख।

५३९—योग्यता अथवा निश्चय के अर्थ में क्रियार्थक संज्ञा का सम्बन्ध-कारक बहुधा "नहीं" के साथ आता है, जैसे, यह बात नहीं होने की ( विचित्र॰), मैं जाने का नहीं हूँ, यह राज्य अब टिकने का नहीं है, रोगी मरने का नहीं, मेरा विचार जाने का नहीं था।

५४०—क्रियार्थक संज्ञा और भूतकालिक कृदंत विशेषण के योग से बहुधा संबंध-कारक का प्रयोग होता है और इससे दूसरे कारकों का अर्थ पाया जाता है, जैसे,

कर्त्तामेरे जाने पर, कवि की लिखी हुई पुस्तक, भगवान का दिया हुआ सब कुछ है।

कर्मगाँव की लूट, कथा का सुनना, नौकर का भेजा जाना, ऊँट की चोरी।

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