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[सू॰—इस प्रकार की रचना का समाधान "के" के पश्चात् "पास" "यहाँ" अथवा इसी अर्थ के किसी और शब्द का अध्याहार मानने से हो सकता है। किसी-किसी का मत है कि इन उदाहरणों में "के" संबध-कारक की "के" विभक्ति नहीं है, किंतु उससे भिन्न एक स्वतंत्र संबंध-सूचक अव्यय है, जो भेद्य के लिंग-वचन के अनुसार नहीं चलता।]

५४४—संबध-कारक को कभी-कभी (भेद्य के अध्याहार के कारण) आकारांत संज्ञा मानकर उसमें विभक्तिये का योग करते हैं (अं॰—३०७ अ), जैसे इस राँडके को बकने दीजिए (शकु॰), एक बार सब घरकों ने महाभारत की कथा सुनी, इत्यादि।

(अ) राजा की चोरी हो गई=राजा के धन की चोरी।

(आ) जेठ सुदी पंचमी=जेठ की सुदी पंचमी।

[सू॰—भेद्य के अध्याहार के लिये १२ वाँ अध्याय देखो।]

(७) अधिकरण-कारक।

५४५—अधिकरण-कारक की मुख्य दो विभक्तियाँ हैं—मे और पर। इन दोनों विभक्तियों के अर्थ और प्रयोग अलग-अलग हैं; इसलिए इनका विचार अलग-अलग किया जायगा।

५४६—'में' का प्रयेाग नीचे लिखे अर्थो में होता है—

(क) अभिव्यापक आधार—दूध में मिठास, तिल में तेल, फूल में सुगंध, आत्मा सबमें व्याप्त है।

[सू॰—आधार के व्याकरण में अधिकरण कहते हैं और वह बहुधा तीन प्रकार का होता है। अभिव्यापक आधार वह है जिसके प्रत्येक भाग में आधेय पाया जाय। इसे व्याप्ति आधार भी कहते हैं। औपश्लेषिक आधार वह कहलाता है जिसके किसी एक भाग में आधेय रहता है; जैसे, नौकर कोठे में सोता है, लडका घोडे पर बैठा है। इसे एकदेशाधार भी कहते है। तीसरा आधार वैपयिक कहलाता है और उससे विषय का बोध होता है, जैसे, धर्म में रुचि, विद्या में प्रेम। इसका नाम विषयाधार भी है।]