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शब्द के साथ ये विभक्तियाॅ आती हैं, उससे दोनों विभक्तियों का अर्थ पाया जाता है; जैसे, वह घोड़े पर से गिर पड़ा, जहाज पर के यात्रियों ने आनंद मचाया, इस नगर मे का कोई आदमी तुमको जानता है? हिदुओं में से कई लोग विलायत को गये हैं, डोरी पर का नाच मुझे बहुत ही भाया (विचित्र॰)। (अं॰—५३७ छ)।

५५५—कई एक कालवाचक और स्थानवाचक क्रिया-विशेषणों में और विशेषकर आकारांत संज्ञाओं में अधिकरण-कारक की विभक्तियों का लोप हो जाता है; जैसे, इन दिनों हर-एक चीज महँगी है, उस समय मेरी बुद्धि ठिकाने नहीं थी, मैं उनके दरवाजे कभी नहीं गया, छःबजे सूरज निकलता है, उस जगह बहुत भीड़ थी, हम आपके पाँव पड़ते हैं।

(अ) प्राचीन कविता में इन विभक्तियों का लोप बहुधा होता है, जैसे, पुत्रि, फिरिय बन बहुत कलेशू (राम॰); ठाढ़ी अजिर यशोदा रानी (ब्रज॰)।

जो सिर धरि महिमा मही, लहिबत राजा-राव।
प्रगटते जड़ता आपनी, मुकुट सु पहिरत पाव॥ (सत॰)।

५५६—अधिकरण की विभक्तियों का नित्य लोप होने के कारण कई एक संज्ञाओं का प्रयेाग संबंध-सूचक के समान होने लगा है; जैसे, वश, किनारे, नाम, विषय, लेखे, पलटे, इत्यादि। (अं॰—२३९)।

५५७—कोई-कोई वैयाकरण "तक", "भर", "बीच", "तले", आदि कई एक अव्ययों को अधिकरण-कारक की विभक्तियों में गिनते हैं, पर ये शब्द बहुधा संबंध-सूचक अथवा क्रिया-विशेषण के समान प्रयोग में आते हैं; इसलिए इन्हें विभक्तियों में गिनना भूल है। इनका विवेचन यथास्थान हो चुका है।