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(५२४)

सातवाँ अध्याय।
कालों के अर्थ और प्रयोग।
(१) संभाव्य भविष्यत्-काल।


५९३—संभाव्य भविष्यत्-काल नीचे लिखे अर्थों में आता है—

(अ) संभावना—आज (शायद) पानी बरसे; (कहीं) वह लौट न आवे; हो न हो; राम जाने।

इस अर्थ मे संभाव्य-भविष्यत् के साथ बहुधा "शायद" (कदाचित्), "कहीं" आदि आते हैं।

(आ) निराशा अथवा परामर्श—अब मैं क्या करूँ? हम यह लड़की किसको दें?

यह अर्थ बहुधा प्रश्नवाचक वाक्यों में होता है।

(इ) इच्छा, आशीर्वाद, शाप आदि—मैं यह बात राजा को सुनाऊँ, आपका भला हो, ईश्वर आपकी बढ़ती करें; मैं चाहता हूँ कि कोई मेरे मन की थाह लेवे (गुटका॰); गाज परै उन लोगन पै।

(ई) कर्त्तव्य, आवश्यकता—तुमको कब योग्य है कि वन में बसो; इस काम के लिए कोई उपाय अवश्य किया जावे

(उ) उद्देश, हेतु—ऐसा करो जिसमें बात बन जाय, इस बात की चर्चा हमने इसलिए की है कि उसकी शंका दूर हो जाय

(ऊ) विरोध—तुम हमें देखोदेखो, हम तुम्हें देखा करें; कोई कुछ भी कहे; चाहे जो हो; अनुभव ऐसे विरह का क्यों न करे बेहाल।

(ऋ) उत्प्रेक्षा (तुलना)—तुम ऐसी बातें करते हो मानो कहीं के राजा होओ; ऋषि ने तुम्हारे अपराध को भूल अपनी कन्या ऐसे भेज दी है जैसे कोई चोर के पास अपना धन भेज दे,