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जैसे किसी की रुचि छुहारों से हटकर इमली पर लगे वैसे ही तुम रनवास की स्त्रियों को छोड़ इस गँवारी पर आसक्त हुए हो (शकु॰)।

(ए) अनिश्चय—जब मैं बोलूँ, तब तुम तुरंत उठकर भागना; जो कोई यहाँ आवे उसे आने दो।

इस अर्थ में क्रिया के साथ बहुधा संबंध-वाचक सर्वनाम अथवा क्रिया-विशेषण आता है।

(ऐ) सांकेतिक संभावना—तुम चाहो तो अभी झगड़ा मिट जाय, आज्ञा हो तो हम घर जायँ, जो तू एक बेर उसको देखे तो फिर ऐसी न कहे (शकु॰)।

इस अर्थ में जो (अगर, यदि)—तो से मिले हुए वाक्य आते हैं।

५९४—कविता और कहावतों में संभाव्य-भविष्यत् बहुधा सामान्य-वर्त्तमान के अर्थ में आता है। कभी-कभी इससे भूतकाल के अभ्यास का भी बोध होता है। उदा॰—बढ़त-बढ़त सपति-सलिल मन-सरोज बढ़ि जाय (सत॰); उत्तर देत छाड़ौं बिनु मारे (राम॰), वक्र चंद्रमहि ग्रसै न राहू (तथा), देख न कोई सके खड़े हो इस प्रकार से (क॰ क॰), नया नौकर हिरन मारै (कहा॰), एक मास रितु आगे धावै (कहा॰); सुखी उठूँ मैं रोज सबेरे (हि॰ ग्रं॰), मुझे रहें सखियाँ नित घेरे (तथा); सबके गृह-गृह होइ पुराना (राम॰)।

(२) सामान्य भविष्यत् काल।

५९५—इस काल से अनारंभ कार्य अथवा दशा के अतिरिक्त नीचे लिखे अर्थ सूचित होते हैं—

(अ) निश्चय की कल्पना—ऐसा वर और कहीं न मिलेगा, जहाँ तुम जाओगे वहाँ मैं भी जाऊँगा, उस ऋषि का हृदय बड़ा कठोर होगा