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(ई) प्रार्थना—आप मुझ पर कृपा करे, नाथ, मेरी इतनी विनती मानिये (सत्य॰) , नाथ करहु बालक पर छोहू (राम॰)।

(उ) आग्रह—अब चलो, देर होती है। उठो, उठो, जनि सेवत रहहू।

[सू॰—आग्रह के अर्थ में बहुधा "तो सही" क्रिया-विशेषण वाक्यांश जोड़ दिया जाता है; जैसे, चलो तो सही, उठो तो सही, आप बैठिये तो सही, वह आवे तो सही।]

५९७—आदर के अर्थ में इस काल के अन्य पुरुष बहुवचन का, अथवा "इये"—प्रत्ययात रूप का प्रयोग होता है, जैसे, महाराज इस मार्ग से आवें, आप यहाॅ बैठिये, नाथ, मेरी इतनी विनती मानिये। इन दोनों रूपों में पहला रूप अधिक शिष्टाचार सूचित करता है।

(अ) आदर-सूचक विधिकाल का रूप कभी-कभी संभाव्य-भविष्यत् के अर्थ में आता है, जैसे, मन में आती है कि सब छोड-छाड़ यहीं बैठ रहिये (शकु॰), मनुष्य-जाति की स्त्रियों में इतनी दमक कहाँ पाइये (तथा), देखिये, इसका फल क्या होता है? अगर दिये के आसपास गंधक और फिटकरी छिड़क दीजिये, तो (कैसी ही हवा चले) दिया न बुझेगा (अं॰—३८६—३—ई),

इन उदाहरणों में 'रहिये' भाववाच्य और 'पाइये,' 'देखिये' तथा 'दीजिये' कर्मवाच्य हैं।

(आ) "चाहिए" भी एक प्रकार का कर्मवाच्य संभाव्य भविष्यत्-काल है, क्योंकि इसका उपयोग अदर-सूचक विधि के अर्थ में कभी नहीं होता, किंतु इससे वर्त्तमानकाल की आवश्यकता ही का बोध होता है (अं॰—४०५)।

(इ) "लेना" और "चलना" क्रियाओं का प्रत्यक्ष विधिकाल बहुधा उदासीनता के अर्थ में विस्मयादि-बोधक के समान प्रयुक्त होता