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(उ) "जानना" क्रिया के संभाव्य भविष्यत्-काल में अन्यपुरुष कर्त्ता—जैसे, तुम्हारे मन में () न जाने क्या सोच है; () क्या जाने किसीके मन में क्या है।

(ऊ) छेटे-छोटे प्रश्नवाचक तथा अन्य वाक्यों में जब कर्त्ता का अनुमान क्रिया के रूप से हो सकता है तब उसका लोप कर देते हैं; जैसे, क्या वहाँ जाते हो? हाँ, जाता हूँ। अब तो मरते हैँ।

(ऋ) व्यापक अर्थवाली सकर्मक क्रियाओं का कर्म लुप्त रहता है; जैसे, बहिन तुम्हारी () झाड़ रही है। लड़का () पढ़ सकता है, पर () लिख नहीं सकता। बहिरो () सुनै, गूँग पुनि () बोलै।

(ॠ) विशेषण अथवा संबंधकारक के पश्चात् "बात", "हाल" "संगति" आदि अर्थवाले विशेष्य (भेद्य) का लोप हो जाता है; जैसे, दूसरों की क्या () चलाई, इसमे राजा भी कुछ नहीं कर सकता; जहाॅ चारों इकट्ठी हों वहाॅ का () क्या कहना; सुधरी () बिगरै वेगही, बिगरी () फिर सुधरै न; हमारी और उनकी () अच्छी निभी।

(ए) "होना" क्रिया के वर्त्तमान-काल के रूप बहुधा कहावतों में, निषेधवाचक विधेय मे तथा उद्गार से लुप्त रहते हैं; जैसे, दूर के ढोल सुहावने (); मैं वहाॅ जाने का नहीं (); सज्जन किसी की बुराई नहीं करते (), महाराज की जय (); आपको प्रणाम ()।

(ऐ) कभी-कभी स्वरूप-बोधक समुच्चय-बोधक का लोप विकल्प से होता है, जैसे, नौकर बोला () महाराज, पुरोहितजी आये हैं। क्या जाने () किसी के मन में क्या भरा है। कविता में इसका लोप बहुधा होता है; जैसे, लषन लखेउ, भा अनरथ आजू। तिय हँसिकै पिय सों कह्यौ, लखौ दिठौना दीन्ह।