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दो पद और एक विधान-चिह्न। दोनों पदों का क्रमशः उद्देश्य और विधेय तथा विधान-चिह्न का संयोजक कहते हैं। वाक्य में जिसके विषय में विधान किया जाता है उसे उद्देश्य कहते हैं और उद्देश्य के विषय में जे विधान किया जाता है वह विधेय कहलाता है। उद्देश्य और विधेय में, परस्पर, जो संगति वा विसंगति होती है उसी के संबंध सै वाक्य में यथार्थ विधान किया जाता है और इस विधान के संयोजक शब्द से सूचित करते हैं। साधारण बोल-चाल में वाक्यों के ये तीन अवयव बहुधा अलग-अलग अथवा स्पष्ट नहीं रहते, इसलिए भाषा के प्रचलित वाक्य कों न्याय-शास्त्र में योग्य स्वरूप दिया जाता है, अर्थात् न्याय-शास्त्र के स्वीकृत वाक्य मे उद्देश्य, विधेय और संयोजक स्पष्टता से रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, “घोड़ा दैड़ा”, इस साधारण बोलचाल के वाक्य के न्याय शास्त्र में “घोड़ा दौड़नेवाला था” कहेंगे। व्याकरण में इस प्रकार का रूपांतर संभव नहीं है, क्योंकि उसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि का निश्चये अधिकांश में शब्दों के रूपों की संगति पर अवलंबित है। न्यायशास्त्र मे उद्देश्य और विधेय की संगति पर केवल अर्थ की दृष्टि से ध्यान दिया जाता है; इसलिए व्याकरण के वाक्य को जैसा को तैसा रखकर, उसमें न्यायशास्त्र के उद्देश्य और विधेयक प्रयोग करते हैं। व्याकरण और न्याय-शास्त्र के इसी मेल का नाम वाक्य-पृथक्करण है। वाक्य-पृथक्करण में केवल व्याकरण की दृष्टि से विचार नही कर सकते, और न केवल न्याय-शास्त्र की ही दृष्टि से, किंतु दोनों के मेल पर दृष्टि रखनी पड़ती है।

साधारण बोलचाल के वाक्य में न्याय-शास्त्र का संयोजक शब्द बहुधा मिला हुआ रहता है, और व्याकरण में उसे अलग बताने की आवश्यकता नहीं होती; इस लिए वाक्य-पृथक्करण की दृष्टि से वाक्य