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६८५―साधारण विधेय में केवल एक समापिका क्रिया रहती है, और वह किसी भी वाच्य, अर्थ, काल, पुरुष, लिंग, वचन और प्रयोग में आ सकती है। “क्रिया” शब्द में संयुक्त क्रिया का भी समावेश होता है। उदा०―

पानी गिरा। लड़का जाता है। पत्थर फेंका जायगा। धीरे-धीरे उजेला होने लगा।

(क) साधारणतः अकर्मक क्रियाएँ अपना अर्थ स्वयं प्रकट करती हैं, परंतु कोई-कोई अकर्मक क्रियाएँ ऐसी हैं कि उनका अर्थ पूरा करने के लिए उनके साथ कोई शब्द लगाने की आवश्यकता होती है। वे क्रियाएँ ये हैं―बनना, दिखना, निकलना, कहलाना, ठहरना, पड़ना, रहना।

इनकी अर्थ―पूर्ति के लिए संज्ञा, विशेषण अथवा कोई और गुणवाचक शब्द लगाया जाता है; जैसे, वह आदमी पागल है। उसका लड़का चोर निकला। नौकर मालिक बन गया। वह पुस्तक राम की थी।

(ख) सकर्मक क्रिया का अर्थ कर्म के बिना पूरी नहीं होता और द्विकर्मक क्रियाओं में दो कर्म आते हैं; जैसे, पक्षी घोंसले बनाते हैं। वह आदमी मुझे बुलाता है। राजा ने ब्राह्मण को दान दिया। यज्ञदत्त देवदत्त को व्याकरण पढ़ाता है।

(ग) करना, बनाना, समझना, पाना, रखना, आदि सकर्मक क्रियाओं के कर्मवाच्य के रूप अपूर्ण होते हैं; जैसे, वह सिपाही सरदार बनाया गया। ऐसा आदमी चालाक समझा जाता है। उसका कहना झूठ पाया गया। उस लड़के का नाम शंकर रक्खा गया।

(घ) जब अपूर्ण क्रियाएँ अपना अर्थ आपही प्रगट करती हैं तब वे अकेली ही विधेय होती है; जैसे, ईश्वर है। सबेरा हुआ। चंद्रमा दिखता है। मेरी घड़ी बनाई जायेगी।