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(६०३)

[सू०—संज्ञा-उपवाक्य केवल मुख्य विधेय ही का कर्म नहीं होता, किंतु मुख्य उपवाक्य में आनेवाले कृदत को भी कर्म हो सकता है; जैसे, आप यह सुनकर प्रसन्न होंगे कि इस नगर में अब शांति है। चेार से यह कहना कि तू साहूकार है, वक्रोक्ति कहाती है।]

७०३—संज्ञा-उपवाक्य बहुधा स्वरूप-वाचक समुच्चय-बोधक ‘कि’ से आरभ होता है, जैसे, वह कहता है “कि मैं कल जाऊँगा”। आपको कब येाग्य है “कि वन में बसो”।

(क) पुरानी भाषा में तथा कहीं-कहीं आधुनिक भाषा में ‘कि’ के बदले “जो” का प्रयोग पाया जाता है । यथा—बाबा से समझायकर कहा “जा वे मुझे ग्वालो के सग पठाय दे” (प्रेम०)। यही कारण है “जो मर्म ही इनकी समझ में नहीं आता” (स्वा०)।

(ख) जब आश्रित उपवाक्य मुख्य उपवाक्य के पहले आता है, तब ‘कि’ का लोप हो जाता है और मुख्य उपवाक्य में “यह” निश्चयवाचक सर्वनाम आश्रित उपवाक्य को समानाधिकरण हेाकर आता है, जैसे “परमेश्वर एक है”, यह धर्म की बात है। “मैं आपको भूल जाऊँ”, यह कैसे हो सकता है?

(ग) कर्म के स्थान में आनेवाले आश्रित उपवाक्य के पूर्व ‘कि’ का बहुधा लोप कर देते हैं, जैसे, पडोसिन ने कहा, अब मुझे दवाई की जरूरत नहीं। क्या जाने, किसी के मन में क्या है।

(ध) कविता में ‘कि’ का प्रयोग बहुत कम करते हैं, जैसे,

लषन लखेल, भा अनरथ आजू।
सकल सुकृत कर फल सुत एहू।
राम-सीय-पद सहज सनेहू।

( ४ ) संझा-उपवाक्य कभी-कभी प्रश्नवाचक होते हैं, और मुख्य उपवाक्य में बहुधा यह, ऐमा अधवा क्या सर्वनाम का प्रयोग होता है, जैसे, राजा ने यह न जाना “कि मैं क्या कर रहा”