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कविता की दूसरी प्राचीन भाषाओं की रूपावली भी जो हिंदी में पाई जाती है, ब्रजभाषा की रूपावली के साथ यथासंभव दी जायगी, पर प्रत्येक रूपांतर के साथ यह बताना कठिन होगा कि वह किस विशेष उपभाषा का है। ऐसी अवस्था में एक प्रकरण के भिन्न-भिन्न रूपातरों का उल्लेख एक ही साथ किया जायगा। यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि जितने रूपों का संग्रह इस परिशिष्ट में किया गया है उनके सिवा और भी कुछ अधिक रूप यत्र-तत्र कविता में पाये जाते हैं।

३―गद्य और पद्य के शब्दों के वर्ण-विन्यास में बहुधा यह अंतर पाया जाता है कि गद्य के ड, य, ले, व, श और क्ष के बदले पद्य में क्रमशः र, ज, र, ब, स और छ (अथवा ख) आते हैं, और संयुक्त वर्णों के अवयव अलग-अलग लिखे जाते हैं, जैसे, पडा=परी, यज्ञ=जज्ञ, पीपल=पीपर, वन=बन, शील =सील, रक्षा=रच्छा, साक्षी=साखी, यत्न=जतन, धर्म=घरम।

४―गद्य और पद्य की भाषाओं की रूपावली में एक साधारण अंतर यह है कि गद्य के अधिकांश आकारांत पुल्लिग शब्द पद्य में ओकारांत रूप में पाये जाते हैं, जैसे,

संज्ञा―सेना=सोने, चेरा=चेरो, दिया=दिया, नाता=नाते, बसेरा=बसेरो, सपना=सपनो, बहाना=बहानो (उर्दू), मायका=मायको।

सर्वनाम―मेरा=मेरो, अपना=अपनो, पराया=परायो, जैसा=जैसो, जितना=जितनो।

विशेषण―काला=कारो, पीला=पीरो, ऊँचा=ऊँचो, नया=नयो, बडा=बडो, सोधा=सीधो, तिरछा= तिरछो।

क्रिया―गया=गयो, देखा=देख्यो, जाऊँगा=जाऊँगी, करता=करतो, जाना= जान्यो।