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लिंग।

५―इस विषय में गद्य और पद्य की भाषाओं में विशेष अंतर नही है। स्त्रीलिंग बनाने में ई और इनि प्रत्ययों का उपयोग अन्यान्य प्रत्ययों की अपेक्षा अधिक किया जाता है; जैसे, वर-दुल-हिनि सकुचाहिं। दुलही सिय सुंदर। भूलि हूँ न कीजै ठकु-राइनी इतेक हठ। भिल्लिनि जनु छॉड़न चहत।

वचन।

६―बहुत्व सूचित करने के लिए कविता में गद्य की अपेक्षा कम रूपांतर होते हैं और प्रत्ययों की अपेक्षा शब्द से अधिक काम लिया जाता है। रामचरित-मानस में बहुधा समूहवाची नामो (गन, वृंद, यूथ, निकर आदि) का विशेष प्रयोग पाया जाता है। उदा°―

जमुना-तट कुंज कदंब के पुंज तरे तिनके नवनीर झिरैं।
लपटी लतिका तरु जालन सो कुसुमावलि तें मकरंद गिरैं।

इन उदाहरणो में मोटे अक्षरों में दिये हुए शब्द अर्थ में बहुवचन हैं; पर उनके रूप दूसरे ही हैं।

(क) अविकृत कारकों के बहुवचन में संज्ञा का रूप बहुधा जैसा का तैसा रहता है; पर कहीं-कहीं उसमे भी विकृत कारकों का रूपांतर दिखाई देता है। अकारात स्त्रीलिंग शब्दों के बहुवचन में ऐं के बदले बहुधा ऐं पाया जाता है।

उदा°―भौंरा ये दिन कठिन हैं। विलोकत ही कछु भौंर की भीरन। सिगरे दिन येही सुहाति हैं बातैं

(ख) विकृत कारकों के बहुवचन में बहुधा न, न्ह अथवा नि आती है; जैसे, पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। ज्यों आँखिन सब देखिये। दै रहो अँगुरी दोऊ कानन में।