(अ) प्राचीन भाषा की काव्य-स्वतंत्रता है,
१२―विभक्तियों का लोप―
(क) कर्त्ता-कारक-इन नाहीं कछु काज बिगारा। नारद देखा बिकल जयंता―(राम०)। जगत जनाया जिहिं सकल―(सत०)।
(ख) कर्म―भूप भरत पुनि लिये बुलिई―(राम०)। पापी अजामिल पार कियो―(जगतू०)।
(ग) करण-ज्यो आँखिन सब देखिये―(सत०)। लागि अगम आपनि कदराई―(राम०)।
(घ) सप्रदान-जामबंत नीलादि सुन पहिराये रघुनाथ― (राम०)। सुरन धीरज देत यह नव वीरगुण संचार (क० क०)।
(ङ) अपादान―हानि कुसंग सुसंगति लोहू। लोकहु वेद विदित सब काहू―(राम०)। विकृत भय कर के डरन जो कछु चित अकुलात―(जगत्०)।
(च) सबंध-भूप रूप, तब राम दुरावा―(राम०)। पावस घन अँधियार में―(सत०)।
(छ) अधिकरण―भानुबंश भे भूप घनेरे—(राम०)। एक पाय भीत एक मीत कांधे धरे एक―(जगत्०)।
१३―सत्तावाचक और सहकारी क्रियाओ का लोप―
(क) अब जो कहै सो झूठी―(कवीर०)। धनि रहीम के लोग–(रहीम०)।
(ख) अति विकराल न जात () बतायो―(ब्रज०)। कपि कह () धर्मशीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर तिय-चोरी―(राम०)।
१४-संबंधी शब्दों में से किसी एक शब्द का ल़प अथवा विपर्यय-जो जनत्यों वन बंधु-विछोहू।