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स्वंपद-भ्रष्ट किये जिसने हमे (क० क०)।
३६―विभक्तियों का लोप―
(जो) मम सदन बहाता स्वर्ग मंदाकिनी था (प्रिय०)।
सुरपुर बैठी हुई (सर०)।
३७―सहकारी क्रिया का लोप―
किंतु उच्च-पद में सद रहता (सर०)।
हाय! आज ब्रज में क्यों फिरते, जाओ तुम सरसी के तीर।

―(तत्रैव)।

३८―संबंधी शब्दों में से किसी एक का लोप अथवा विपर्यय―
प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो―
() सुलभ कौन तुम्हे न पदार्थ हो (पद्य०)।
निकला वही दण्ड यम का जब,
() कर आगे अनुमान (सर०)।
कहो न मुझसे ज्ञानी बनकर, ( ) जगजीवन है स्वप्न-समान

―(जीवन०)।

जब तक तुम पयपान करोगे। () नित नीरोग-शरीर रहोगे।

―(सूक्ति०)।

लख सुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाॅ? (प्रियं०)।

समाप्त