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इस पुस्तक में, जैसा कि ग्रंथ में अन्यत्र ( पृ०७० पर) कही है, अधिकांश मे वही पारिभाषिक शब्द रक्खे गये हैं जो हिंदी में 'भाषा-भास्कर' के द्वारा प्रचलित हो गये हैं । यथार्थ में ये सब शब्द संस्कृत व्याकरण के हैं जिससे हमने और भी कुछ शब्द लिये हैं । थोड़े-बहुत आवश्यक शब्द मराठी तथा बँगला भाषाओं के व्याकरणों से लिये गये हैं और उपयुक्त शब्दों के अभाव में कुछ शब्दो की रचना हमने स्वयं की है ।

व्याकरण की उपयोगिता और आवश्यकता इस पुस्तक में यथा-स्थान दशाई गई है, तथापि यहाँ इतना कहना उचित जान पड़ता है कि किसी भी भाषा के व्याकरण का निर्माण उसके साहित्य की पूर्ति का कारण होता है और उसकी प्रगति में सहायता देता है । भाषा की सत्ता स्वतंत्र होने पर भी, व्याकरण उसका सहायक अनुयायी बनकर उसे समय-समय और स्थान-स्थान पर जो आवश्यक सूचनाएँ देता है उससे भाषा को लाभ होता है। जिस प्रकार किसी संस्था के संतोष-पूर्वक चलने के लिए सर्व-सम्मत नियमों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भाषा की चंचलता दूर करने और उसे व्यवस्थित रूप में रखने के लिए व्याकरण ही प्रधान और सर्वोत्तम साधन है। हिंदी-भाषा के लिए यह नियंत्रण और भी आवश्यक है, क्योंकि इसका स्वरूप । उपभाषाओ की खींचातानी में अनिश्चित सा हो रहा है।

हिंदी-व्याकरण की प्रारंभिक इतिहास अंधकार में पड़ा हुआ है। हिंदी-भाषा के पूर्व रूप 'अपभ्रंश' का व्याकरण हेमचंद्र ने बारहवीं शताब्दी में लिखा है, पर हिंदी-ब्याकरण के प्रथम आचार्य का पता नहीं लगता। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी के प्रारंभ-काल में व्याक-रण की आवश्यता नहीं थी, क्योंकि एक तो स्वयं भाषा ही उस समय अपूर्णावस्था में थी; और दूसरे, लेखकों को अपनी मातृभाषा