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के ज्ञान और प्रयोग के लिए उस समय व्याकरण की विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती थी । उस समय लेखों में गद्य का अधिक प्रचार न होने के कारण भाषा के सिद्धांतो की ओर संभवतः लोगों का ध्यान भी नही जाता था। जो हो, हिंदी के आदि- वैयाकरण का पता लगाना स्वतंत्र खोज का विषय है। हमें जहाँ तक पुस्तकों से पता लगा है, हिंदी-व्याकरण के अदि-निर्माता वे अँगरेज थे जिन्हें ईश्वी सन् की उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में इस भाषा के विधिवत् अध्ययन की आवश्यकता हुई थी। उस समय कलकत्ते के फोर्ट-विलियम कालेज के अध्यक्ष डा० गिलक्राइस्ट ने अँगरेजी में हिदी का एक व्याकरण लिखा था । उन्हीं के समय से प्रेम-सागर के रचयिता लल्लूजी लाल ने "कवायद-हिंदी" के नाम से हिंदी-व्याकरण की एक छोटी पुस्तक रची थी । हमे इस दोनों पुस्तको को देखने का सैभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, पर इनका उल्लेख अँगरेजों के लिखे हिंदी व्याकरणों में तथा हिंदी-साहित्य के इतिहास में पाया जाता है ।

लल्लूजी लाल के व्याकरण के लगभग २५ वर्ष पश्चात् कलकत्ते के पादरी आदम साहब ने हिंदी-व्याकरण की एक छोटी-सी पुस्तक लिखी जो कई वर्षों तक स्कूलो मे प्रचलित रही । इस पुस्तक में अँगरेजी-व्याकरण के ढंग पर हिंदी-व्याकरण के कुछ साधारण नियम दिये गये हैं। पुस्तक की भापा पुरानी, पंडिताऊ ग्रीर विदेशी लेखक की स्वाभाविक भूलों से भरी हुई है। इसके पारिभाषिक शब्द बँगला व्याकरण से लिये गये जाने पड़ते हैं और हिंदी में उन्हें समझाते समय विपय की कई भूले भी हो गई हैं ।। सिपाही विद्रोह के पीछे शिक्षा-विभाग की स्थापना हाने पर पं० रामजसन को भाषा-तत्व-बोधिनी प्रकाशित हुई जो एक साधारण पुस्तक है और जिसमें कहीं-कहीं हिदी और संस्कृतं की मिश्रित