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का संबंध नहीं टूट सकता उसी प्रकार अँगरेजी से उसका वर्तमान संबंध टूटना इष्ट होने पर भी, शक्य नहीं । अँगरेज लोगों ने अपने सूक्ष्म विचार और दीर्घ उद्योग से ज्ञान में प्रत्येक शाखा में जो समुन्नति की है उसे हम लोग सहज ही नहीं भूल सकते । यदि संस्कृत में शब्दों के आठ भेद नहीं माने गये हैं। तो हिंदी में उन्हें उपयोगिता की दृष्टि से मानने में कोई हानि नहीं, किंतु लाभ ही हैं।

यहाँ अब यह प्रश्न हो सकता है कि जब हम संस्कृत के अनुसार शब्द-भेद नहीं मानते तब फिर संस्कृत के पारिभाषिक शब्दों का उपयोग क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि ये शब्द हिंदी में बहुत दिनों से प्रचलित हैं और हम लोगों को इनका हिदी अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं होती । इसलिए बिना किसी विशेष कारण के प्रचलित शब्दो का त्याग उचित नहीं। किसी किसी पुस्तक में ‘संज्ञा' के लिए 'नाम' और 'सर्वनाम' के लिए 'सज्ञा-प्रतिनिधि'शब्द आये हैं और कोई कोई लोग ‘अव्यय' के लिए ‘निपात' शब्द का प्रयोग करते हैं। परंतु प्रचलित शब्दों को इस प्रकार बदलने से गड़बड़ के सिवा कोई लाभ नही । इस पुस्तक में अधिकांश पारिभाषिक शब्द ‘भाषा-भास्कर' से लिये गये हैं; क्योंकि निर्दोष न होने पर भी वह पुस्तक बहुत दिनों से प्रचलित है और उसके पारिभाषिक शब्द हम लोगों के लिए नये नहीं हैं।]

९६–व्युत्पत्ति के अनुसार शब्द दो प्रकार के होते हैं--(१) रूढ़, (२) यौगिक ।

( १ ) रूढ़ उन शब्दों को कहते हैं जो दूसरे शब्दों के योग से नही बने ; जैसे, नाक, कान, पीला, झट, पर, इत्यादि ।

(२) जो शब्द दूसरे शब्दों के योग से बनते हैं उन्हें यौगिक शब्द कहते हैं; जैसे, कतर-नी, पीला-पन, दूध-वाला, झट-पट, घुड़-साल, इत्यादि ।

यौगिक शब्दों में ही सामासिक शब्दों का समावेश होता है। अर्थ के अनुसार यौगिक शब्दों का एक भेद योगरूढ कहता है जिससे कोई विशेष अर्थं पाया जाता है; जैसे, लंबोदर, गिरि- धारी, पंकज, जलद, इत्यादि । ‘पंकज' शब्द के खंडों ( पंक+ज)