पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/९४

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पहला खंड।

विकारी शब्द।

पहला अध्याय।

संज्ञा।

९७—संज्ञा उस विकारी शब्द को कहते हैं जिससे प्रकृत किंवा कल्पित सृष्टि की किसी वस्तु का नाम सूचित हो, जैसे, घर, आकाश, गंगा, देवता, अक्षर, बल, जादू, इत्यादि।

(क) इस लक्षण में 'वस्तु' शब्द का उपयोग अत्यंत व्यापक अर्थ में किया गया है। वह केवल प्राणी और पदार्थं ही का वाचक नहीं है किंतु उनके धर्मों का भी वाचक है। साधारण भाषा मेंं 'वस्तु' शब्द का उपयोग इस अर्थ में नहीं होता; परंतु शास्त्रीय ग्रंथों में व्यवहृत शब्दों का अर्थं कुछ घटा-बढ़ाकर निश्चित कर लेना चाहिये जिससे उसमें कोई संदेह न रहे।

[टी°—हिंदी व्याकरणों में दिये हुए सब लक्षण न्याय-सम्मत रीति से किये हुए नहीं जान पड़ते; इसलिए यहाँ न्याय-सम्मत लक्षणों के विषय में संक्षेपतः कुछ कहने की आवश्यकता है। किसी भी पद का लक्षण कहने में दो बातें बतानी पड़ती हैं—(१) जिस जाति में उस पद का समावेश होता है वह जाति; और (२) लक्ष्य पद का असाधारण धर्म, अर्थात् लक्ष्य पद के अर्थ को उस जाति की अन्य उपजातियों के अर्थ से अलग करनेवाला धर्म। किसी शब्द का अर्थ समझाने के कई उपाय हो सकते हैं पर उन सबको लक्षण नहीं कह सकते। लक्षण=जाति+असाधारण धर्म। जिस लक्षण में लक्ष्य पद स्पष्ट अथवा गुप्त रीति से आता है वह शुद्ध लक्षण नहीं है। इसी प्रकार एक शब्द का अर्थ दूसरे शब्द के द्वारा बताना (अर्थात् उसका पर्यायवाची शब्द