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कहना ) भी उस शब्द का लक्षण नहीं। यदि हम सज्ञा का न्यायोक्त लक्षण कहना चाहें तो हमें उसकी जाति और असाधारण धर्म बताना चाहिये । जिस अधिक व्यापक वर्ग में संज्ञा का समावेश होता है वहीं उसकी जाति है, और उस जाति की दूसरी उपजातियों से संज्ञा के अर्थ में जो भिन्नता है। वही उसका असाधारण धर्म है । संज्ञा का समावेश विकारी शब्दों में है; इसलिए 'विकारी शब्द' संज्ञा की जाति है और 'प्रकृत किंवा कल्पित सृष्टि की किसी वस्तु का नाम सूचित करना' उसका असाधारण धर्म है जो विकारी शब्द की उपजातियो, अर्थात सर्वनाम, विशेषण, आदि में नहीं पाया जाता है इसलिए ऊपर कही हुई संज्ञा की परिभाषा, न्याय-दृष्टि से स्वीकरणीय है। लक्षण में अत्याप्ति और अति-व्याप्ति-दोष न होने चाहिये । जब लक्ष्य पद के असाधारण धर्म के बदले किसी ऐसे धर्म का उल्लेख किया जाता है जो उसकी जाति के सब व्यक्तियों में नहीं पाया जाता, तब लक्षण में अव्याप्ति-दोष होता है, जैसे यदि मनुष्य के लक्षण में यह कहा जाय कि “मनुष्य वह विवेकी प्राणी है जो व्यक्त भाषा बोलता है तो इस लक्षण में अव्याप्ति-दोष , क्योंकि व्यक्त भाषा बोलने का धर्म गूंगे मनुष्यों में नहीं पाया जाता है इसके विरुद्ध जब लक्ष्य पद का धर्म उसकी जाति से भिन्न जातियों के व्यक्तियों में भी घटित होता है तब लक्षण में अति-व्याप्ति दोष होता है; जैसे वन का लक्षण करने में यह कहना अति-व्याप्ति-दोष है कि 'वन स्थल का वह भाग है जो सघन वृक्षों से ढंका रहता है', क्योंकि सघन वृक्षो से ढंके रहने का धर्म पर्वत और बगीचे में भी पाया जाता है ।

हिदी-व्याकरणों में दिये गये, संज्ञा के लक्षणों के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं---

( १ ) संज्ञा पदार्थ के नाम को कहते है । ( भा०–त०--बो० ) ।

(२) संज्ञा वस्तु के नाम को कहते हैं। ( भा०-भा० )।

(३) पदार्थ-मान्न की संज्ञा को नाम कहते हैं । ( भा०-त०-दी० )।

( ४ ) वस्तु के नाम-मात्र को सज्ञा कहते हैं । ( हि०-भा०-या० )।

ये लक्षण देखने में सहज जान पड़ते हैं और छोटे छोटे विद्यार्थियों के बोध के लिए न्याय-सम्मत लक्षणों की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं, परतु ये ठीक या निर्दोष लक्षण नहीं हैं। इनसे केवल यही जाना जाता है कि 'संज्ञा' का पर्यायवाची शब्द 'नाम' है अथवा 'नाम' का पर्यायवाची शब्द संज्ञा' है । इसके सिवा इन लक्षणों में कल्पित सृष्टि की कोई उल्लेख नहीं है। बैताल-