पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/११३

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११८६ ग-व्यंजन के स्पर्शविक में कवर्ग का तीसरा वणं । इसका उच्चा विशेष-इसने अपने दायादों को विनष्ट करने के लिये प्रिया रणस्थान कंठ है और शिक्षा में यह 'क' का गंभीर संस्पृष्ट दर्शन नामक सांप को निमंत्रित किया । प्रिय दर्शन ने दायादों . रूप माना गया है। इसका प्रयत्न अघोप अल्पप्राण है। को समाप्त कर इस के कुल को भी उच्छिन्न कर दिया । तब .. गंग'----संशा पुं० [गडा] १. एक मात्रिक छद जिसके प्रत्येक गंगदत्त अपनी जात लेकर बाहर निकल भागा। पंचतंत्र में चरण में नौ मात्राएं होती हैं । अंत में दो गुरु होना मावश्यक यह कथा विस्तार से लिखित है। है। जैसे,—रामा भजो रे । कामा तजौ रे । नित याहि गंगधर-संक्षा पुं० [सं० गङ्गाधर महादेव । शंकर । ३०-गिरिवर- कीजै । सब छोड़ि दीजै । २. एक कवि का नाम जो अकबर घर अरु गंगधर चरन सरन सिर नाई।-हम्मीर०. पृ० १ . के समय में था। गंगवार-संशा श्री० [हि० गंगा+धार] गंगा की धारा या प्रवाह । । गंग-संधा श्री० [सं० गड़ा) गंगा नदी। उ०---कर रख्खि तप्पं उ०-संभ जटाजूट पर चंद की छुटी है छटा चंद की छटान . दिन गंग न्हावं ।-पृ० रा०, २२॥१६८ । 4 छटा हैं गंगधार की 1-पनाकर ग्रं॰, पृ०२५३ । । विशेष-समास में समस्त पद के प्रादि में गंगा का कभी कभी गंगवरार- का कमा कमा गंगवरार-पंछा पुं० [फा०प्रयवा हि गंगा+फा० वरार-बाहर या गंग हो जाता है । जैसे,—गंगदत्त , गंगदास गंगजमुन, गंग- ऊपर लाया हमा] वह जमीन जो गंगा या किसी और नदी । वचन, गंगजल इत्यादि। की धारा या बोड़ के हटने से निकन पाती है और जिसपर . मुहा०-गंगगति लेना=गंगालाम करना । मृत्यु होना । 30- उस नदी के द्वारा लाई हुई मिट्टी जमी रहती है। मर जो चले गंगगति लेई । तेहि दिन तहां धरी को देई । गंगजा-संहापुं० [देश॰] एक प्रकार का कंद । शलजम । जायसी ग्रं०, पृ० ५३ ॥ गंगशिकस्त-संज्ञा पुं० [फा०या हि० गंगा+फा० शिकस्त तोटा गंग-संशा स्त्री० [फा] गंगा नदी को। हुआ ] वह जमीन जिसे कोई नदी काट ले गई हो। ' यौ०-गंगबरार । नंगशिकस्त । गंगई-संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० में में] मैना की जाति को एक चिड़िया। गगसुत- जन गगसुत-संशा प्री० [हिं० गंग+सुत] दे० गंगामुत' 1 30---मारपो ... गलगलिया। करण गंगसुन द्रोना ।—कबीर सा०, पृ० ५०। विशेष-यह डेढ़ दो वालिम्त लंबी और गहरे भरे रंग की होती गंगा-मंशा श्री [सं० गङ्गा] भारतवर्ष की एक प्रधान नदी जो . हैं। यह भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रांतों मेंहोती है और खेतों, हिमालय से निकल कर १५६० मील पूर्व को बहकर बगाल मैदानों और जंगलों से छोटे छोटे झुडों में फिरती है । की पहाड़ी में गिरती है। इसके अंडा देने का कोई नियत समय नहीं है । यह झाड़ विशेष---इसका जल प्रत्यंत स्वच्छ और पवित्र होता है और से घोंसला बनाती है और चार अंडे देती है। यह बहुत इसमें कभी कीड़े नहीं पड़ते । हिंदू इस नदी को परम पवित्र बोलती है। मानते हैं और इसमें स्नान करना पुण्य समझते हैं। पुराणों गंगका–संञ्चा ग्री० [सं० गङ्गका] गंगा नदी [को॰] । में इसे हिमालयकी पुत्री माना है और इसकी माता का नाम :- गंगकुरिया-संवा श्री० [सं० गङ्गा+फूल] एक प्रकार की हल्दी जो मनोरमा लिखा है, जो सुमेर फी वान्या घी। कहते हैं, गंगा .. कटक में होती है । इसकी गांठे लंबी और बड़ी होती हैं। पहले स्वर्ग में थी। जब सगर के साठ हजार पुलों को कपिल .. गंगख -संज्ञा स्त्री० [सं० गङ्गका] गंगा । मदाकिनी। उ०-कर जी ने भस्म कर डाला, तब उनके उद्धार के लिये मागीरथ .. रविख तप्पं दिन गंग न्हावं । तहाँ उज्जलं गंगा जी को स्वर्ग से पृथिवी पर लाए। गगा गय स्वर्ग से गिरी । गंगखं नीर । घावै।-पृ० स०, २१११३८ । थीं, तब उन्हें शिव जी ने अपनीको जटा में धारण किया था। इसी से शिव जी की जटा में गंगा मानी जाती हैं । पृयियी पर गंगतिरिया-संक्षा नी० [हिं० गंग+तीर] एक पौधा जो सजल गिरने पर गंगा भगीरथ के साथ गगासागर को, जहाँ कपिल भूमि में होता है। जी ने सगर के पुत्रों को भस्म किया था, जा रही थीं कि इसी विशेष-इसकी पत्तियां बड़ी और नोनिया की पत्तियों के समान बीच में जह, ऋपि ने उन्हें पी लिया और भगीरथ के बहुत । सिरे पर नुकीली होती है । इसमें पीपल के समान बाल निक प्रार्थना करने पर उन्हें अपने जान से निकाला । इसी से गंगा लगी हैं । वैद्यक में यह शीतल, रूखी, कडुई, नेत्र और हृदय का नाम जह्न सुता आदि पड़ा। पुराणानुसार गंगा की तीन - को हितकारी, शुक्रजनक, मलरोधक तथा दाह और द्रण घाराए है-एक स्वर्ग में जिसे 'पाकाशगंगा' कहते हैं, दूसरी.. को दूर करनेवाली मानी जाती हैं। इसे पनिसिंगा और पृथिवी पर और तीसरी पाताल में। यह नदी गंगोत्तरी की .' जलपीपल भी कहते हैं। पहाड़ी से जो १३, ८०० फुट ऊँची है, बर्फ के पिघलने से . गंगदत्त-संज्ञा पुं० [सं० गङ्गदत्ता] मेंढ़कों के एक राजा का प्राचीन नाम । निकलती है और मंदाकिनी तथा बलकनंदा से मिलकर हरिः .